Tuesday, January 13, 2009

फिर कोई आया दिल-ऐ-जार

आज बाज़ार में प् बजौला चलो

ग़ज़ल-कैफ़ी

शोर यूँही न परिंदों ने मचाया होगा,
कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा।

पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था,
जिस्म जल जायेंगे जब सर पे न साया होगा।

बानी-ऐ-जश्न-ऐ-बहारां ने ये सोचा भी नहीं,
किस ने काँटों को लहू अपना पिलाया होगा।

बिजली के तार पे बैठा हुआ हँसता पंछी,
सोचता है के वोह जंगल तो पराया होगा।

अपने जंगल से जो घबरा के उड़े थे प्यासे,
हर सराब उन को समन्दर नज़र आया होगा।

नज़्म

मेरा माँज़ी मेरे काँधे पर -

अब तह्दुनकी हो ये जीत या हार,
मेरा माँज़ी है अभी तक मेरे काँधे पर सवार।
आज भी दौड़ के गल्ले में जो मिल जाता हूँ,
जाग उठता है सीने में जंगल कोई,
सींग माथे पे उभर आते हैं।

पड़ता रहता है मेरे माँज़ी का साया मुझ पर,
दौर-ऐ-खूँखारी से गुज़रा हूँ,छुपाऊँ क्यों कर,

दांत सब खून में डूबे नज़र आते हैं।

जिन से मेरा न कोई बैर न प्यार,
उन पे करता हूँ मै वार, उन का करता हूँ शिकार,
और भरता हूँ जहन्नुम अपना।

पेट ही पेट मेरा,जिस्म है दिल है न दिमाग़,
कितने अवतार बढे ले के हथेली पे चिराग़,
देखते ही रह गए, धो पाये न माँज़ी के ये दाग।

मल लिया माते पे तहज़ीब का गाज़ा लेकिन,
बरबरियत का है जो दाग़ वो छूटा ही नहीं,
गाँव आबाद किए,शहर बसाए हम ने ,
रिश्ता जंगल से जो अपना है वो टूटा ही नहीं।

जब किसी मोड़ पे पर खोल कर उड़ता है गुबार,
और नज़र आता है उस में कोई मासूम शिकार,
जाने हो जाता है सर पे जुनूँ एक सवार,

किसी झाड़ी से उलझ कर जो कभी टूटी थी,
वही दुम फिर से निकल आती है ,
वही लहराती है।
अपनी टांगों में दबाए जिसे फिरता हूँ ज़कज़
इतना गिर जाता हूँ,सदीयों में हुआ जितना बुलंद.

ग़ज़ल

हाथ आ कर लगा गया कोई,
मेरा छप्पर उठा गया कोई,
लग गया एक मशीन में मै भी,
शहर में ले के आ गया कोई।

मै खड़ा था के पीठ पर मेरी,
इश्तहार एक लगा गया कोई।

ये सदी धुप को तरसती है,
जैसे सूरज को खा गया कोई।

ऐसी महंगाई है की चेहरा भी,
बेच के अपना खा गया कोई।

अब वोह अरमान हैं न वोह सपने,
सब कबूतर उड़ा गया कोई।

वो गए जब से ऐसा लगता है,
छोटा मोटा ख़ुदा गया कोई।

मेरा बचपन भी साथ ले आया,
गाँव से जब भी आ गया कोई.

ग़ज़ल

मै ढूंढता हूँ जिसे वोह जहाँ नहीं मिलता,
नई ज़मीन नया आसमान नहीं मिलता।
नयी ज़मीन नया आसमान भी मिल जाए,
नए बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता।

वोह तेग़ मिल गयी जिस से हुआ है क़त्ल मेरा,
किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता।

वोह मेरे गाँव हैं, वोह मेरे गाँव के चूल्हे,
जिनमें शोले तो शोले,धुवां नहीं मिलता।
जो इक खुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यों,
यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलता।

खड़ा हूँ कब से मै चेहरों के एक जंगल में,
तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहाँ नहीं मिलता।

खिलौने

रेत की नाव,झाग के मांझी,काठ की रेल,सीप के हाथी,
हलकी भारी प्लास्टर की कीलें,मोम के चक जो रुकें न चलें।

राख के खेत धूल के खलिहान,भाप के पैराहन,धुएँ के मकान,
नहर जादू की ,पल दुआओं के ,झुनझुने चंद योजनाओं के।

सूत के चेले,मोंज के उस्ताद,तीशे दफ्ती के ,कांच के फरहाद,
आलिम आटे के और रुए के इमाम,और पन्नी के शायरान कराम।

ऊन के तीर,रुई की शमशीर,सदर मिटटी का और रबर के वजीर।

अपने सारे खिलौने साथ लिए,
दस्त-ऐ-खाली में कायनात लिए,
दस्तानों में बाँध के रस्सी,
हम खुदा जाने कब से चलते हैं,
न तो गिरते हैं न संभलते हैं।


ग़ज़ल-कैफी

खार-ओ-खास तो उठे,रास्ता तो चले,
मै अगर थक गया,काफिला तो चले।
चाँद सूरज,बुज़ुर्गों के नक्श-ऐ-कदम,
खैर बुझने दो उन को काफिला तो चले।

हाकिम-ऐ-शहर ये भी कोई शहर है,
मस्जिदें बंद हैं,मैकदा तो चले।

उस को मज़हब कहूं या सियासत कहूं,
खुदकुशी का हुनर तुम सिखा तो चले।

इतनी लाशें मै कैसे उठा पाऊंगा,
आप इंटों की हरमत उठा तो चले।

बेलचे लाओ खोलो ज़मीन की तहें,
मै कहाँ दफन हूँ पता तो चले।