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Wednesday, August 26, 2009

सुना करो मेरी जान इन से उन से - कैफ़ी आज़मी

सुना करो मेरी जान, इन से उन से अफ़साने
सब अजनबी हैं यहाँ , कौन किसको पहचाने

यहाँ से जल्द गुज़र जाओ काफिलेवालो !
हैं मेरी प्यास के फूँके हुए ये वीराने ।

मेरे जूनून-ए-परस्तिश से तंग आ गए लोग
सुना है बंद किए जा रहे हैं बुतखाने

जहाँ से पिछले पहर कोई तश्न काम उट्ठा
वहीँ पे तोड़े हैं यारों ने आज पैमाने

बहार आए तो मेरा सलाम कह देना
मुझे तो आज तलब कर लिया है सहरा ने

हुआ है हुक्म कि कैफ़ी को संगसार करो
मसीह बैठे हैं छुप के कहाँ ख़ुदा जाने।

Monday, August 17, 2009

कहीं से लौट कर हम --- कैफ़ी आज़मी

कहीं से लौट के हम लड़खडाए हैं क्या क्या
सितारे ज़ेर-ए-क़दम रात आए हैं क्या क्या ।

नसीब-ए-हस्ती से अफ़सोस हम उभर न सके,
फ़राज़-ए-दार से पैग़ाम आए हैं क्या क्या।

जब उस ने हार के खंजर ज़मीं पे फ़ेंक दिया,
तमाम ज़ख्म-ए-जिगर मुस्कुराए हैं क्या क्या।

छटा जहाँ से उस आवाज़ का घना बादल,
वहीं से धूप ने तलवे जलाये हैं क्या क्या।

उठा के सर मुझे इतना तो देख लेने दे,
के क़त्ल गाह में दीवाने आए हैं क्या क्या।

कहीं अंधेरे से मानूस हो न जाए अदब ,
चराग तेज़ हवा ने बुझ्हाए हैं क्या क्या।


Tuesday, August 11, 2009

ग़ज़ल - कैफ़ी आज़मी

पत्थर के खुदा वहां भी पाए,
हम चाँद से आज लौट आए।
दीवारें तो हर तरफ़ खड़ी हैं,
क्या हो गए मेहरबान साए।
जंगल की हवाएं आ रही हैं,
काग़ज़ का ये शहर उड़ न जाए।
लैला ने नया जन्म लिया है,
है क़ैस कोई जो दिल लगाए?
है आज ज़मीन का गुस्ल-ए-सेहत,
जिस दिल में हो जितना खून लाये।
सेहरा सेहरा लहू के खेमे,
फिर प्यासे लब-ए-फ़ुरात आए।

Monday, June 22, 2009

तुम - कैफ़ी आज़मी

शगुफ्तगी का लताफत का शाहकार हो तुम,
फ़क़त बहार नहीं हासिल-ऐ-बहार हो तुम,
जो इक फूल में है कैदवोह गुलिस्तान हो,
जो इक कली में है पिन्हाँ वो लालाज़ार हो तुम।

हलावतों की तमन्ना,मलाहतों की मुराद,
ग़रूर कलियों का कलियों का इन्कसार हो तुम,
जिसे तरंग में फितरत ने गुनगुनाया है,
वो भैरवी हो , वो दीपक हो,वो मल्हार हो तुम ।
तुम्हारे जिस्म में ख्वाबीदा हैं हजारों राग,
निगाह छेड़ती है जिसको वोह सितार हो तुम,
जिसे उठा न सकी जुस्तजू वो मोती हो,
जिसे न गूँथ सकी आरज़ू वो हार हो तुम।
जिसे न बूझ सका इश्क़ वो पहेली हो,
जिसे समझ न सका प्यार वो प्यार हो तुम
खुदा करे किसी दामन में जज़्ब हो न सके
ये मेरे अश्क-ऐ-हसीं जिन से आशकार हो तुम.



अल्लाह रे!शबाब का ज़माना

हर जुम्बिश-ए-चश्म वालहाना,हर मौज-ए-निगाह साहराना,
अल्लाह रे !शबाब का ज़माना
अपनी ही अदा पे आप सदके,अपनी ही नज़र का ख़ुद निशाना,
अल्लाह रे! शबाब का ज़माना
अपने ही से आप महो तमकीं,अपने ही से ख़ुद फरेब खाना,
अल्लाह रे !शबाब का ज़माना
ये जौक-ए-नज़र ये बदगुमानी,चिलमन के क़रीब छुप के आना,
अल्लाह रे !शबाब का ज़माना
पलकों में ये बेकरार वादा,चितवन में ये मुतमईन बहाना,
अल्लाह रे !शबाब का ज़माना
ये बच के बचा के मश्क-ऐ-अम्ज़ा,ये सोच समझ के मुस्कुराना,
अल्लाह रे !शबाब का ज़माना
ये मस्त खरामियाँ दुहाई,इक इक कदम पे लडखडाना ,
अल्लाह रे !शबाब का ज़माना
माथे पे ये संदली तबस्सुम,होठों पे ये शकरी तराना,
अल्लाह रे !शबाब का ज़माना
चेहरे की दमक फरोग-ऐ-इमाँ, जुल्फों की गिरफ्त काफिराना,
अल्लाह रे !शबाब का ज़माना

अहसास में शबनमी लताफ़त,अनफास में सोज़ शायराना,
अल्लाह रे !शबाब का ज़माना
मर्कूम जबीं पे खुदी पर, ऐसे में महाल है जगाना
अल्लाह रे !शबाब का ज़माना
हाथों के क़रीब माह-ओ-अंजुम,क़दमों के तले शराब खाना ,
अल्लाह रे !शबाब का ज़माना
आईने में गाड़ के निगाहें,बे कसद किसी का गुनगुनाना
अल्लाह रे !शबाब का ज़माना

Saturday, May 16, 2009

नज़राना-कैफ़ी आज़मी

तुम परेशां न हो बाब-ऐ-करम वाँ न करो ,
और कुछ देर पुकारूँगा चला जाऊंगा
इस कूचे में जहाँ चाँद उगा करते हैं ,शब्-ऐ-तारीक़ गुजारूँगा, चला जाऊँगा।
रास्ता भूल गया या यही मंजिल है मेरी,
कोई लाया है के ख़ुद आया हूँ मालूम नहीं
कहते हैं हुस्न की नज़रें भी हसीं होती हैं
मै भी कुछ लाया हूँ, क्या लाया हूँ मालूम नहीं ।

यूँ तो जो कुछ भी था मेरे पास मै सब बेच आया
कहीं इनाम मिला और कहीं कीमत भी नहीं
कुछ तुम्हारे लिए आंखों में छुपा रखा है
देख लो , और न देखो तो शिकायत भी नहीं।

एक तो इतनी हसीं दूसरे ये आराइश ,
जो नज़र पड़ती है चेहरे पे ठहर जाती है,
मुस्कुरा देती हो अगर रस्मन भी कभी महफिल में
एक धनक टूट के सीने में बिखर जाती है।

गर्म बोसों से तराशा हुआ नाज़ुक पैकर,
जिसकी इक आंच से हर रूह पिघल जाती है,
मैंने सोचा है तो सब सोचते होंगे शायद,
प्यास इस तरह भी क्या सांचे में ढल जाती है।

क्या कमी है जो करोगी मेरा नजराना कबूल,
चाहने वाले बहोत चाह के अफ़साने बहोत,
एक ही रात सही गर्मी-ऐ-हंगाम-ऐ-इश्क़,
एक ही रात में जल मरते हैं परवाने बहोत।

फिर भी एक रात में सौ तरह के मोड़ आते हैं,
काश तुमको कभी तन्हाई का एहसास न हो
काश ऐसा न हो घेरे रहे दुनिया तुम को,
और इस तरह की जिस तरह कोई पास न हो।

आज की रात जो मेरी ही तरह तनहा है
मै किसी तरह गुजारूँगा, चला जाऊंगा
तुम परेशां न हो बाब-ऐ-करम-वाँ न करो
और कुछ देर पुकारूँगा,चला जाऊंगा।


Wednesday, May 6, 2009

जौहर

जौहर
मै शोला था------मगर यूँ राख के तूदे ने सर कुचला,
के इक सिले से पेंच ओ ख़म में ढल जाना पड़ा मुझको।
मै बिजली था------मगर वोह बर्फ आ गयी बदलियाँ छाईं ,
के दब के उन चट्टानों में पिघल जन पड़ा मुझको।
मै तूफ़ान था------मगर क्या कहें उस तशन समंदर को,
के सर टकरा के साहिल ही से रुक जाना पड़ा मुझको।
मै आंधी था-मगर वोह खाव्ब आलूदा फिजा पायी,
के ख़ुद अपनी ही ठोकर खा के झुक जाना पड़ा मुझको।

मगर अब इस का रोना क्या है, क्या था देखिये क्या हूँ!
मै इक ठिठुरा हुआ शआला हूँ,इक सिकुडी हुई बिजली,
अशर नश्व ओ नुमा पर डाल ही देता है गहवारा ,
मै इक सिमटा हुआ तूफ़ान हूँ,एक सहमी हुई आंधी।

मगर म्आबूद बेदारी ! कहिए,फितरत बदलती है,
धुवें को गर्म होने दे,भड़कना अब भी आता है,
मेरी जानिब से इत्मीनान रख आतिश-ऐ-नूर-ऐ-रहबर,
ज़रा बादल तो बिखराएं,कड़कना अब भी आता है।

थपेडे हाँ यूँहीं पैहम,थपेडे मौज-ऐ-आज़ादी,
बहा दूँगा मताअ कश्ती-ऐ-महकूमी बहा दूँगा,
झकोले हाँ यही झकोले सर सर-ऐ-हस्ती,
हिला दूँगा तदाद-ऐ- ज़िस्त की चूली हिला दूँगा।


  • अशर-दुष्ट
  • गहवारा-पलना,झूला।
  • नश्व ओ नुमा-पालनपोषण
  • म्आबूद-खुदा,परमेश्वर।
  • बेदारी-जागृति,कृपा।
  • पैहम-निरंतर
  • मताअ-सम्पत्ती।
  • महकूमी-गुलामी।
  • तदाद-दुश्मनी।
  • चूली-डरपोकपन,नामर्दगी।
  • ज़िस्त-अस्तित्व,जिंदगी.

Tuesday, May 5, 2009

नाक़िस भारती

हुआ जब इलेक्शन का सूरज तलूअ,हुई लीग में आम भर्ती शुरू ,
निकाले हुए फिर बुलाए गए,दगाबाज़ सर पर बिठाए गए,
बहुत दिन से था दिल में ये पेंच ओ ताब,
मिले खिद्र का कोई बढ़िया जवाब ,
जो इतना ही भारी ज़मींदार हो,जो ऐसा ही महबूब सरकार हो,
पडी नून पर जब लीग की नज़र,गले से लगा ही लिया दौड़ कर।
"चमकदार कीडा जो भाया उसे,तो टोपी में झट पट छिपाया उसे "

Malik Sir Feroz Khan Noon was high commissioner of india to the united kingdom during 1936-1941 and seventh prime minister of Pakistan,The post here discribes the opportunistic move by Muslim League when it picked Noon from government service and appointed him in higher ranks of the party.In 1947,Noon was sent as Quaid-i-Azam Muhammad Ali Jinnah's special envoy to some countries of the Muslim world. This one-man delegation was the first official mission sent abroad by the Pakistani government.


Saturday, January 24, 2009

साँप


साँप

ये साँप जो आज फन फैलाए,मेरे रास्ते में खड़ा है,

पड़ा था कदम मेरा चाँद पर जिस दिन,

इसी दिन इसे मार डाला था मैंने,

उखाड़ दिए थे सब दांत कुचला था सर भी ,

मरोड़ी थी दुम,तोड़ दी थी कमर भी।

मगर चाँद से झुक के देखा जो मैंने,

तो दुम इस की हिलने लगी थी,

ये कुछ रेंगने भी लगा था।

ये कुछ रेंगता कुछ घिसटता हुआ,

पुराने शिवाले की जानिब बढ़ा,

जहाँ दूध इस को पिलाया गया,पढ़े पंडितों ने कईं मन्त्र ऐसे,

ये कमबख्त फिर से जिलाया गया।

शिवाले से निकला ये फुंकारता,

रग़-ऐ-अर्ज़ पर डंक सा मारता,

बढ़ा मै के इक बार फिर सर कुचल दूँ,

इसे भारी क़दमों से अपने मसल दूँ,

करीब एक वीरान मस्जिद थी,ये मस्जिद में जा छुपा।

जहाँ इस को पट्रोल से गुस्ल दे कर,

हसीं एक तावीज़ गर्दन में डाला गया,

हुआ सदियों में जितना इंसान बुलंद,

ये कुछ उस से भी ऊंचा उछाला गया,

उछल के ये गिरजा की दहलीज़ पे जा गिरा,

जहाँ इस को सोने की केंचुली पहनाई गई,

सलीब एक चाँदी की, सीने पर इस के सजाई गई,

दिया जिस ने दुनिया को पैगाम-ऐ-अमन

उसी के हयात-आफरीन नाम पर इसे जंग बाज़ी सिखाई गई,

बमों का गुलुबन्द गर्दन में डाला और इस धज से मैदान में इस को निकला,

पड़ा इस का धरती पर साया तो धरती की रफ़्तार रुकने लगी,

अँधेरा अँधेरा ज़मीन से फ़लक़ तक अँधेरा,

जबीं चाँद तारों की झुकने लगी।

हुई जब से साइंस ज़र की मती-अ

जो था अलम का ऐतबार वो उठ गया,

और इस साँप को जिंदगी मिल गयी,

इसे हम ने ज़ह्हाक के भारी काँधे पे देखा था एक दिन,

ये हिन्दू नहीं है मुसलमां नहीं,

ये दोनों का मग्ज़-ओ-खून चाटता है,

बने जब हिन्दू मुसलमान इंसान,

उस दिन ये कमबख्त मर जाएगा.

बहरूपनी


हरूनी

एक गर्दन पे सैकड़ों चेहरे,

और उन चेहरों पे हजारों दाग,

और हर दाग बंद दरवाज़ा,

रौशनी इन से आ नहीं सकती,

रोशनी इन से जा नही सकती।

तंग सीना है हौद-मस्जिद का,

दिल वोह दोना,पुजारियों के बाद,

चाटते रहते हैं जिसे कुत्ते,

कुत्ते दोना जो चाट लेते हैं,

देवताओं को काट लेते हैं।

जाने किस कोख ने जना इस को,

जाने किस ज़हन में जवान हुई,

जाने किस देस से चली कमबख्त,

वैसे ये हर ज़बान बोलती है,

ज़ख्म खिड़की की तरह खोलती है.


और कहती है झाँक कर दिल में,

तेरा मज़हब तेरा अज़ीम ख़ुदा,

तेरी तहज़ीब के हसीं सनम,

सब को खतरे ने आन घेरा है,

बाद उन के जहाँ अँधेरा है।

सर्द हो जाता है लहू मेरा,

बंद हो जाती है खुली आंखे,

सभी दुश्मन हैं कोई दोस्त नही,

मुझ को जिंदा निगल रही है ज़मीन।

ऐसा लगता है राक्षस कोई,

एक गागर कमर में लटका कर,

आसमान पे चढेगा आख़िर-ऐ-शब्,

नूर सारा निचोड़ लाएगा

मेरे तारे भी तोड़ लाएगा ।

ये जो धरती का फट गया सीना,

और बाहर निकल पड़े हैं जुलुस ,

मुझ से कहते हैं तुम हमारे हों,

मै अगर इन का हूँ तो मै क्या हूँ,

मै किसी का नहीं हूँ अपना हूँ।

मुझ को तन्हाई ने दिया है जनम,

मेरा सब कुछ अकेलेपन से है,

कौन पूछेगा मुझ को मेले में?

साथ जिस दिन कदम बढाऊंगा,

चाल मै अपनी भूल जाऊंगा।

ये, और ऐसे ही चंद और सवाल,

ढूँढने पर भी आज तक मुझ को,

जिन के माँ बाप का मिला न सुराग़,

ज़हन में ये उंडेल देती है,

मुझ को मुट्ठी में भींच लेती है,

चाहता हूँ की क़त्ल कर दूँ इसे,

वार लेकिन जब इस पर करता हूँ,

मेरे सीने पे ज़ख्म उभरते हैं,

जाने क्या मेरा इसका रिश्ता है।

आँधियों में अज़ान दी मैंने,

शंख फूँका अँधेरी रातों में,

घर के बाहर सलीब लटकाई,

एक एक घर से इस को ठुकराया,

शहर से दूर जाके फ़ेंक आया।

और ऐलान कर दिया के उट्ठो,

बर्फ सी जम गयी है सीने में,

गर्म बोसों से इस को पिघला दो,

कर लो जो भी गुनाह वो कम है,

आज की रात जश्न-ऐ-आदम है,

ये मेरी आस्तीन से निकली,

रख दिया दौड़ के चराग़ पर हाथ,

मल दिया फिर अँधेरा चेहरे पर,

होंठ से दिल की बात लौट गयी,

दर तक आ के बारात लौट गयी।

इस ने मुझ को अलग बुला के कहा,

आज की जिंदगी का नाम है खौफ़।

खौफ़ ही वोह ज़मीं है जिस में ,

फ़र्क़ी उगती है,फ़र्क़ी पलती है,

धारें, सागर से कट चलती हैं।

खौफ़ जब तक दिलों में बाकी है,

सिर्फ़ चेहरा बदलते रहता है,

सिर्फ़ लहज़ा बदलते रहता है,

कोई मुझ को मिटा नही सकता,

जश्न-ऐ-आदम मना नहीं सकता.

मकान
आज की रात बहोत गर्म हवा चलती है,
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी,
सब उठो,मै भी उठूँ,तुम भी उठो,तुम भी उठो,
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी।

ये ज़मीन तब भी निगल लेने पे आमादा थी,
पाँव जब टूटती शाखों से उतारे हम ने,
उन मकानों को ख़बर है न मकीनों को ख़बर,
उन दिनों की जो गुफाओं में गुजारे हम ने।

हाथ ढलते गए सांचें में तो थकते कैसे?
नक़्स के बाद नए नक़्स निखरे हम ने,
की ये दीवार बुलंद और बुलंद और बुलंद,
बाम-ओ-दर और ज़रा और संवारे हम ने ,
आंधियां तोड़ लिया करतीं थीं शमाओं की लवें,
जड़ दिए इस लिए बिजली के सितारे हम ने,
बन गया क़स्र तो पहरे पे कोई बैठ गया,
सो रहे ख़ाक पे हम शोरिश-ऐ-तामील लिए,
अपनी नस नस में लिए मेहनत-ऐ-पैहम की थकन,
बंद आंखों में उस क़स्र की तस्वीर लिए,
दिन ढलता है इस तरह सिरों पर अब तक,
रात आंखों में खटकती है सियाह तीर लिए।

आज की रात बहोत गर्म हवा चलती है,
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी,
सब उठो,मै भी उठूँ,तुम भी उठो,तुम भी उठो,
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी।

Friday, January 16, 2009

लाल झंडा

लाल झंडा

"लाल झंडा फ़ेंक दो " ऐ देश भक्तों क्या कहा,
ये तो है सर्मायादारों की लीडरों की सदा
ये सदा उनकी है जिनकी नफ़ाखोरी का जुनूँ
चूसता है सयाने मज़दूर से दिन रात खूँ
ये सदा उनकी है जो बर्तानिया के हैं गुलाम,
ये सदा उनकी है जो सिंघानिया के हैं गुलाम,
ये सदा उनकी है टाटा ने उभारा है जिन्हें ,
ये सदा उनकी है बिरला ने संवारा है जिन्हें,
दुश्मनी ने कर दिया है तुम को कितना बेखबर
किसका नग्मा गा रहे हो कांग्रेस के साज़ पर
" लाल झंडा फ़ेंक दो " हिटलर पुकारा था यही
"लाल झंडा फ़ेंक दो " टोजो का नारा था यही,
"लाल झंडा फ़ेंक दो" था मुसोलिनी का ये हुक्म
क्या उन्हीं के रास्तों पर चल रहे हो आज तुम?

ऐ के तुम करने उठे हो आज हम से दोस्ती,
लाल झंडा किस का झंडा है ये सोचा है कभी ?
ये वोह झंडा है लरज़ जाते हैं जिन से ताजदार
ये वोह झंडा है उठे हैं ले के जिस को कामगार,
ये वोह झंडा है किया है जिस ने हम को सुर्ख़रू
इस में है "पापा"मियां के गर्म सीने का लहू,
इस की लहरों में है "मारुती" की अंगडाई का रंग
इस की रंगत में कभी है "बाघमारे " की उमंग
इस की सुर्खि में है मजदूरों किसानों का लहू
इस में है कय्युर के कटील जवानों का लहू ।

तुम ने काहे को सुनी होगी कभी ये दास्ताँ
नाम मारुती था किस का कौन थे पापा मियाँ
बाघमारे को मगर पहचानते होगे ज़रूर
अपने ही मारे हुए को जानते होंगे ज़रूर
कांग्रेस की ही वज़ारत जब यहाँ थी हुक्मराँ
सीना मज़दूर पर बरसती दनादन गोलियाँ
कौम की पहली हुकूमत और ये ज़ुल्म-ओ-जफ़ा
अपना साथी बाघमारे जान से मारा गया।
किस क़दर अफ़सोस है ऐ भोले भाले दोस्तों,
तुन हमीं से कह रहे हो "लाल झंडा फ़ेंक दो "?

ये वो झंडा है जो जानों से भी प्यारा है हमें
इस ने हर पस्ती हर दलदल से उबारा है हमें,
इस ने गुर तन्ज़ीम-ओ-कौत का सिखाया है हमें
एकता का रास्ता इसने दिखाया है हमें
इस के दामन में जगह पता नहीं फतना फसाद
आज को सब को सिखाता है ये झंडा ऐतहाद
मुल्क में फैला रहे हैं आज कल जो इन्तशार
कर रहा है कौन इन बहके हुओं को होशियार
जब वतन में हर तरफ़ था दौर दौरअह यास का
किस ने दर जेलों के खडकाए के लीडर हो रहा
झूठ का जब हुक्मरानों ने बिछा रखा था दाम,
लग रहा था कांग्रेस पर फाशेद का एतहाम
मुल्क भर से कौन उठा कांग्रेस के नाम पर
बन के बिजली कौन टूटा साम्राजी दाम पर
जब दबा रखा था जालिम नफ़ाखोरों ने अनाज,
बिक रही थी रास्तों में माँओं ओउर बहनों की लाज,
कौन उठा बंगाल को उस दम बचाने के लिए?
भ्होख के जालिम शिकंजे से छुडाने के लिए,
आ गया था सर पे जब जापान दन्नाता हुआ,
कौन उठा था हिफाज़त की क़सम खाता हुआ?
लड़ रहा था कौन उस दिन मुल्क-ओ-मिल्लत के लिए,
किस ने जद्दोजहद की कौमी हकुमत के लिए?

मुश्किलों में काम जो आता है वो हमदम है ये
जो हमारे सर पे लहराता है वो परचम है ये,

यूँ तो झंडे और भी हैं मुल्क में छोटे बड़े,
कौन लड़ता है मगर मेहनतकशों के वास्ते
तुम इलेक्शन के लिए हम पर हुए हों मेहरबां
ये इलेक्शन ख़त्म हो फिर तुम कहाँ और हम कहाँ
कौन फिर सर्मायादारों से बचायेगा हमें
कौन बोनस कौन महंगाई दिलाएगा हमें
कोई कौत हम से ये झंडा हम से छुडा सकती नहीं
कोई बिजली इस फरेरे को जला सकती नहीं,
ये वो झंडा है जो अमरीका में लहराता है आज,
ये वो झंडा है जो लन्दन में भी बल खाता है आज,
ये वो झंडा है जो है paris के दिल पर हुक्मरान
ले रहा है सीना-ऐ-बर्लिन पे भी अंगडाइयां
ये वो झंडा है जो कुल योरप पे है छाया हुआ,
चीन के रंगीन अफ़क़ पर भी है लहराया हुआ,

ये वो है अपना ग़रीबों ने बनाया है जिसे
ये वो है जावा ने काँधे पर उठाया है जिसे,
ले के ये झंडा यूंही आगे बढे जायेंगे हम,
चढ़ के फांसी पर भी इस झंडे को लहराएंगे हम

nazb कर देंगे इसे इक रोज़ हर दीवार में
कारखानों में मिलों में खेत में बाज़ार में







Tuesday, January 13, 2009

ग़ज़ल-कैफ़ी

शोर यूँही न परिंदों ने मचाया होगा,
कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा।

पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था,
जिस्म जल जायेंगे जब सर पे न साया होगा।

बानी-ऐ-जश्न-ऐ-बहारां ने ये सोचा भी नहीं,
किस ने काँटों को लहू अपना पिलाया होगा।

बिजली के तार पे बैठा हुआ हँसता पंछी,
सोचता है के वोह जंगल तो पराया होगा।

अपने जंगल से जो घबरा के उड़े थे प्यासे,
हर सराब उन को समन्दर नज़र आया होगा।

ग़ज़ल

हाथ आ कर लगा गया कोई,
मेरा छप्पर उठा गया कोई,
लग गया एक मशीन में मै भी,
शहर में ले के आ गया कोई।

मै खड़ा था के पीठ पर मेरी,
इश्तहार एक लगा गया कोई।

ये सदी धुप को तरसती है,
जैसे सूरज को खा गया कोई।

ऐसी महंगाई है की चेहरा भी,
बेच के अपना खा गया कोई।

अब वोह अरमान हैं न वोह सपने,
सब कबूतर उड़ा गया कोई।

वो गए जब से ऐसा लगता है,
छोटा मोटा ख़ुदा गया कोई।

मेरा बचपन भी साथ ले आया,
गाँव से जब भी आ गया कोई.

ग़ज़ल

मै ढूंढता हूँ जिसे वोह जहाँ नहीं मिलता,
नई ज़मीन नया आसमान नहीं मिलता।
नयी ज़मीन नया आसमान भी मिल जाए,
नए बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता।

वोह तेग़ मिल गयी जिस से हुआ है क़त्ल मेरा,
किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता।

वोह मेरे गाँव हैं, वोह मेरे गाँव के चूल्हे,
जिनमें शोले तो शोले,धुवां नहीं मिलता।
जो इक खुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यों,
यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलता।

खड़ा हूँ कब से मै चेहरों के एक जंगल में,
तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहाँ नहीं मिलता।

खिलौने

रेत की नाव,झाग के मांझी,काठ की रेल,सीप के हाथी,
हलकी भारी प्लास्टर की कीलें,मोम के चक जो रुकें न चलें।

राख के खेत धूल के खलिहान,भाप के पैराहन,धुएँ के मकान,
नहर जादू की ,पल दुआओं के ,झुनझुने चंद योजनाओं के।

सूत के चेले,मोंज के उस्ताद,तीशे दफ्ती के ,कांच के फरहाद,
आलिम आटे के और रुए के इमाम,और पन्नी के शायरान कराम।

ऊन के तीर,रुई की शमशीर,सदर मिटटी का और रबर के वजीर।

अपने सारे खिलौने साथ लिए,
दस्त-ऐ-खाली में कायनात लिए,
दस्तानों में बाँध के रस्सी,
हम खुदा जाने कब से चलते हैं,
न तो गिरते हैं न संभलते हैं।


ग़ज़ल-कैफी

खार-ओ-खास तो उठे,रास्ता तो चले,
मै अगर थक गया,काफिला तो चले।
चाँद सूरज,बुज़ुर्गों के नक्श-ऐ-कदम,
खैर बुझने दो उन को काफिला तो चले।

हाकिम-ऐ-शहर ये भी कोई शहर है,
मस्जिदें बंद हैं,मैकदा तो चले।

उस को मज़हब कहूं या सियासत कहूं,
खुदकुशी का हुनर तुम सिखा तो चले।

इतनी लाशें मै कैसे उठा पाऊंगा,
आप इंटों की हरमत उठा तो चले।

बेलचे लाओ खोलो ज़मीन की तहें,
मै कहाँ दफन हूँ पता तो चले।

Thursday, January 1, 2009

जागिए

जागिए

ढलते ढलते स्याह रात ये कह गयी,
जागिए! आप के दोस्त ने बम बना भी लिया।
और तह-ऐ-आप उसे एक दिन आज़मा भी लिया।

नीले पानी की सब सीम तन मछलियाँ जल गयीं,
नन्हीं परियां,थिरकती हसीं तितलियाँ जल गयीं,
जल गया नब्ज़-ऐ-गेती में जोश-ऐ-नमू *
(दुनिया की नब्ज़ )
जल गयी बाग़ की हसरत-ऐ-रंग-ओ-बू
और बहारों ने खेमा,चमन से उठा भी लिया।

जागिए आप के दोस्त ने बम बना भी
लिया।

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दफ्फात एक ऐसा भयानक धमाका हुआ

जो फ़रिश्ते ज़मीन पर उतर आए थे, उड़ गए ,

ये सुलगती पिघलती ज़मीन छोड़ कर,

आसमानों से एक बार फिर जुड़ गए,

असर-ऐ-नू के लिए जो सहीफ़ नया लाये थे,

उसको अपने परों में छुपा भी लिया,

अब सलामत किसी की है न दुनिया न दीं

रुई की तरह धनकी पडी है खुदा की ज़मीन,

जिस्म इंसान के तुकडे दरख्तों में अटके हुए ,

चाँद अंधेरे की सूली पे लटके हुए,

टूटे तारों को धरती ने खा भी लिया,

जागिए! आप के दोस्त ने बम बना भी लिया।

कम्युनिस्ट ईकाई के टूटने पर

आवारा सजदे

इक यही सोज़-ऐ-निहाँ कल मेरा सरमाया है ,
दोस्तों,मैं किसे ये सोज़-ऐ-निहाँ नज़र करुँ।

कोई क़ातिल सर मक़्तल नज़र आता ही नहीं
किस को दिल नज़र करुँ और किसे जान नज़र करुँ।

तुम भी महबूब मेरे तुम भी हो दिलदार मेरे,
आशना मुझ से मगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं,

ख़त्म है तुम पे मसीहा नफस चारा गरी
महरूम दर्द-ऐ-जिगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं,
अपनी लाश आप उठाना कोई आसान नहीं,
दस्त-ऐ-बाज़ू मेरे नाकारा हुए जाते हैं।
जिनसे हर दौर में चमकी है तुम्हारी दहलीज़,
आज सजदे वही आवारा हुए जाते हैं।

दूर मंजिल थी मगर ऐसी भी कुछ दूर न थी,
ले के फिरती रही रस्ते ही में वहशत मुझ को,
एक ज़ख्म ऐसा न खाया के बहार आ जाती,
दार तक ले के गया शौक़-ऐ-शहादत मुझ को,
राह में डूब गए पाँव तो मालूम हुआ,
जुज़ मेरे और मेरा रहनुमा कोई नहीं
एक के बाद एक खुदा चला आता था,
कह दिया अक़्ल ने तंग आ के खुदा कोई नहीं।

Friday, December 26, 2008

हौसला-कैफी

हौसला

तू खुर्शीद है,बादलों में न छुप,
तू महताब है जगमगाना न छोड़,

तू शोखी है शोखी राअयत न कर,
तू बिजली है बिजली ,जलाना न छोड़,

अभी इश्क़ ने हार मानी नहीं,
अभी इश्क़ को आज़माना न छोड़.