Friday, August 21, 2009

मुक़द्दर

मुक़द्दर का अर्थ है किस्मत :

م+ق+دّ+ر=مقدّر

urdu alphabet

The Perso-Arabian charectars are arranged according to the similarity or shape,unlike the devnaagri charecatrs which are grouped phonetically।The urdu alphabet,It must be remembered is composed of the arabic,persian and hindi letters.

The urdu gutturals kaaf (ک) and gaaf (گ) , pronounced by lifting the root of the tongue at the throat, correspond to क and ग while kha (کھ) and gha (گھ) with aspiration have the same articulation as and in Devnaagree।

The harsh guttural "Khai" (خ) is pronounced with greater force and roughness and resembles
ख़

The soft guttural "ghain" (غ) is articulated well down the throat with a vibration and denoted by ग़

and the deep guttural qaf (ق) denotes क़

The Pharyngeal "ain" (ع) is indicated by by the spiritus asper (ء) followed by a wovel in devnaagri and sometimes is used for

There is a slightly pharyngeal (ۂ) which has its corresponding to in devnaagri ।

Now, There is another ( حـ) which denotes ह with a slight dot below it-The same way one would put below qaf as क़ and ghain as ग़ .unfortunately devnaagri doesn't have a letter defined and therefore it can not be shown.

हयात

हयात का अर्थ है जिंदगी, जीवन।

ح+ي+ا+ت=حيات

मंज़िलें मंज़िलें - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

मंज़िलें मंज़िलें,
शौक़-ए-दीदार की मंज़िलें,
हुस्न-ए-दिलदार की मंज़िलें,प्यार की मंज़िलें,
प्यार की बेपनाह रात की मंज़िलें,
कह्कशानों की बारातकी मंज़िलें,
सब्र बुलंदी की, हिम्मत की, परवाज़ की,
जोश-ए-परवाज़ की मंज़िलें
राज़ की मंज़िलें

जिंदगी की कठिन राह की मंज़िलें,
सब्र बुलंदी की, हिम्मत की, परवाज़ की मंज़िलें,
जोश-ए-परवाज़ की मंज़िलें,
राज़ की मंज़िलें

आज मिलने के दिन,
फूल खिलने के दिन,
वक़्त के घोर सागर में सुबह की ,
शाम की मंज़िलें ,
चाह की मंज़िलें, आस की,
प्यार की मंज़िलें।
हसरत-ए-यार की,
प्यार की मंज़िलें,
मंज़िलें हुस्न-ए-अलम के गुलनार की,
मंज़िलें, मंज़िलें।

हर जी हयात का है- मीर

हर जी हयात का है, सबब जो हयात का,
निकले है जी उसी के लिए,कायनात का।

बिखरे हैं ज़ुल्फ़ उस रुख-ऐ-आलमफरोज़ पर,
वरना बनाव होवे न दिन और रात का।

उसके फ़रोग-ए-हुस्न से झलके है सब में नूर,
शम्म-ए-हरम हो या के दिया सोमनाथ का।

क्या मीर तुझ को नामासियाही की फ़िक्र है ?
ख़त्म-ए-रसूल सा शख्स है ज़ामिन निजात का।

ज़ुल्मतकदे में मेरे शब्-ए-गम - ग़ालिब

ज़ुल्मतकदे में मेरे,शब्-ए-गम का जोश है,
इक शम्मा है दलील-ए-सहर, सो खामोश है।

न मुज़्दा-ए-विसाल न नज़ारा-ए-जमाल,
मुद्दत हुई की आस्तीं-ए-चश्म-ओ-गोश है।

मैंने किया है हुस्न-ए-खुद्दार को बे हिजाब ,
ऐ शौक़ याँ इजाज़त-ए-तस्लीम-ए-होश है।

गौहर को इक़्द-ए-गर्दन -ए-खुबाँमें देखना,
क्या औज पर सितारा-ए-गौहरफ़रोश है।

दीदार ,वादा , हौला, साक़ी निगाह-ए-मस्त,
बज़्म-ए-ख़याल मैक़दा-ए-बेखरोश है।

दाग़-ए-फिराक़-ए-सोहबत-ए-शब् की जली हुई,
इस शम्मा रह गई है सो वो भी खामोश है।

आते हैं गैब से ये मज़ामीं ख्याल में,
गालिब, सरीर-ए-खामाँ नवा-ए-सरोश है.