Friday, January 16, 2009

याद- फ़ैज़

याद
दस्त-ऐ-तन्हाई में ऐ जान-ऐ-जहाँ लरजाँ हैं
तेरी आवाज़ के साए तेरे होंठों के सराब
दस्त-ऐ-तन्हाई में दूरी के ख़स-ओ-ख़ाक तले,
खिल रहें हैं तेरे पहलू के सुमन और गुलाब
उठ रही है कहीं कुर्बत से तेरी साँस की आंच,
अपनी खुशबू में सुलगती हुई मद्धम मद्धम
दूर उफक पार चमकती हुई कतरा कतरा,
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम।

इस क़दर प्यार से ऐ जान-ऐ-जहाँ रखा है दिल के रुखसार पे उस वक्त तेरी याद ने हाथ,
यूँ गुमान होता है गर च अभी सुबहे फ़राक़,ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात.

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