Thursday, May 14, 2009

गई वो बात के - ग़ालिब

गयी वोह बात के हो गुफ्तगू "तो क्यों कर हो"
कहे से कुछ न हुआ , फिर हो ,तो क्यों कर हो ?

हमारे ज़हन में इस फ़िक्र का है नाम विसाल ,
के गरन हो तो कहाँ जाएँ, हो तो क्यों कर हो?

अदब है और यही कशमकश तो क्या कीजे,
हया है और यही गोमगो तो क्यों कर हो?

तुम्हीं कहो के गुज़ारा सनम परस्तों का,
बुतों की हो अगर ऐसी ही खु तो क्यों कर हो?

उलझते हो तुम अगर देखते हो आइना,
जो तुम से शहर में हों एक,दो,तो क्यों कर हो?

जिसे नसीब हो रोज़-ऐ-स्याह मेरा सा
वो शख्स दिन न कहे रात को,तो क्यों कर हो?

हमें फिर उन से उम्मीद, और उन्हें हमारी क़द्र!
हमारी बात ही पूछें न वो तो क्यों कर हो?

गल्त न था हमें ख़त पर गुमाँ तसल्ली का,
न माने दीद-ओ-दीदार जो, तो क्यों कर हो?

मुझे जुनूँ नहीं ग़ालिब! वले बकौल-ऐ-हुज़ूर,
फिराक-ऐ-यार में तस्कीँ हो,तो क्यों कर हो?

मेहरबां हो के-ग़ालिब

मेहरबां हो के बुला लो मुझे,चाहो जिस वक़्त,
मै गया वक़्त नहीं हूँ के फिर आ भी न सकूं ।

दअफ़ में ताना-ग़यारक्या शिकवा क्या है?
बात कुछ सर तो नहीं है के उठा भी न सकूं

ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर ! वरना
क्या क़सम है तेरे मिलने की के खा भी न सकूं ।