Monday, July 13, 2009

तुम ये कहते हो अब कोई चारा नहीं - फैज़

तुम ये कहते हो वो जंग हो भी चुकी!

जिस में रखा नहीं है किसी ने क़दम

कोई उतरा न मैदान में दुश्मन न हम

कोई सफ बन न पाई न कोई अलम

मन्त्षर दोस्तों को सदा दे सका

अजनबी दुश्मनों का पता दे सका

तुम ये कहते वो जंग हो भी चुकी।

जिसमें रखा नहीं है हम ने अब तक क़दम ,

तुम ये कहते हो अब कोई चारा नहीं,

जिस्म खस्ता है हाथों में यारा नहीं।



अपने बस का नहीं बार-ए-संग-ए-सितम,

बार-ए-संग-ए-सितम,बार-ए-कह्सार-ए-अनम,





ग़ज़ल-फैज़

कब ठहरेगा दर्द-ऐ-दिल कब रात बसर होगी,
सुनते थे वो आएँगे सुनते थे सहर होगी।

कब जान लहू होगी,कब अश्क गोहर होगा,
किस दिन तेरी सुनवाई ऐ दीदः -ऐ-तर होगी।

कब महकेगी फ़स्ल-ऐ-गुल कब बहकेगा मैखाना,
कब सुबह-ऐ-सुखन होगी,कब शाम-ऐ-नज़र होगी।

कब तक अब राह देखें ऐ क़ामत-ऐ-जानाना ,
कब हश्र मुआइन है,तुझको तो ख़बर होगी।

वाइज़ है न ज़ाहिद है, नासेह है न क़ातिल है,
अब शहर में यारों की किस तरह बसर होगी.

फैज़

आ गयी फ़स्ल-ऐ-सुकूँ चाक गरीबाँ वालों,
सिल गए होंठ कोई ज़ख्म सिले या न सिले ,
दोस्तों बज़्म सजाओ के बहार आई है,
खिल गए ज़ख्म कोई फूल खिले या न खिले।