Monday, July 27, 2009

ग़ालिब

'आइना देख' अपना सा मुंह ले के रह गए,
साहब को दिल न देने पे कितना गुरूर था,
क़ासिद को अपने हाथ से गर्दन न मारिये,
उसकी खता नहीं है ये मेरा क़सूर था।

ग़ालिब

दोस्त' गम्ख्वारी में मेरी सअइ फरमाएंगे क्या?
ज़ख्म के भरने तलक,नाखून न बढ़ जायेंगे क्या?

बेनयाज़ी हद से गुज़री "बन्दापरवर "कब तलक?
हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फरमाएंगे - क्या?

हज़रात-ए-नासेह गर आवें,दीद-ओ-दिल फर्श-ए-राह,
कोई मुझ को ये तो समझा दो,के समझावेंगे क्या?

आज वां तेग़-ओ-कफ़न बांधे हुए जाता हूँ मै
अज़र मेरे क़त्ल करने में वोह अब लावेंगे क्या?

गर किया नासेह ने हम की कैद 'अच्छा' यूँ सही,
ये जूनून-ए-इश्क़ के अंदाज़ छूट जावेंगे क्या?

खानजाद-ए-ज़ुल्फ़ हैं, ज़ंजीर से भागेंगे क्यों?
हैं गिरफ्तार-ए-वफ़ा ,ज़िन्दाँ से घबराएँगे क्या?


है अब इस म'अमूर में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फत 'असद',
हम ने ये माना "दिल्ली में रहें " - खायेंगे क्या?