सादिर का अर्थ है जारी या फरमान किया हुआ(हुक्म) :
सा=ص+ا
दि=د
र= ر
सादिर=صادر
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Tuesday, August 11, 2009
दिल-ए-मन मुसाफिर-ए-मन - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
मेरे दिल,मेरे मुसाफिर,
हुआ फिरसे हुक्म सादिर ,
के वतन बदर हों हम तुम
दें गली गली सदाएं,
करें रुख नगर नगर का,
के सुराग़ कोई पाएं,
किसी यार-ए-नामाबर का।
हर एक अजनबी से पूछें,
जो पता था अपने घर का,
सर-ए-कूए नाशेनायाँ ,
हमें दिन से रात करना।
कभी इस से बात करना,
कभी उस से बात करना,
तुम्हें क्या कहूं की क्या है,
शब् ए ग़म बुरी बला है।
हमें ये भी था गनीमत,
जो कोई शुमार होता,
हमें क्या बुरा था मरना,
अगर एक बार होता।
हुआ फिरसे हुक्म सादिर ,
के वतन बदर हों हम तुम
दें गली गली सदाएं,
करें रुख नगर नगर का,
के सुराग़ कोई पाएं,
किसी यार-ए-नामाबर का।
हर एक अजनबी से पूछें,
जो पता था अपने घर का,
सर-ए-कूए नाशेनायाँ ,
हमें दिन से रात करना।
कभी इस से बात करना,
कभी उस से बात करना,
तुम्हें क्या कहूं की क्या है,
शब् ए ग़म बुरी बला है।
हमें ये भी था गनीमत,
जो कोई शुमार होता,
हमें क्या बुरा था मरना,
अगर एक बार होता।
ग़ज़ल - कैफ़ी आज़मी
पत्थर के खुदा वहां भी पाए,
हम चाँद से आज लौट आए।
दीवारें तो हर तरफ़ खड़ी हैं,
क्या हो गए मेहरबान साए।
जंगल की हवाएं आ रही हैं,
काग़ज़ का ये शहर उड़ न जाए।
लैला ने नया जन्म लिया है,
है क़ैस कोई जो दिल लगाए?
है आज ज़मीन का गुस्ल-ए-सेहत,
जिस दिल में हो जितना खून लाये।
सेहरा सेहरा लहू के खेमे,
फिर प्यासे लब-ए-फ़ुरात आए।
हम चाँद से आज लौट आए।
दीवारें तो हर तरफ़ खड़ी हैं,
क्या हो गए मेहरबान साए।
जंगल की हवाएं आ रही हैं,
काग़ज़ का ये शहर उड़ न जाए।
लैला ने नया जन्म लिया है,
है क़ैस कोई जो दिल लगाए?
है आज ज़मीन का गुस्ल-ए-सेहत,
जिस दिल में हो जितना खून लाये।
सेहरा सेहरा लहू के खेमे,
फिर प्यासे लब-ए-फ़ुरात आए।
आदत - कैफ़ी आज़मी
मुद्दतों में इक अंधे कुंवे में असीर,
सर पटकता रहा गुनगुनाता रहा,
रौशनी चाहिए,चांदनी चाहिए, जिंदगी चाहिए,
रौशनी प्यार की,चांदनी यार की,जिंदगी डर की।
अपनी आवाज़ सुनता रहा रात दिन ,
धीरे धीरे यक़ीन दिल को आता रहा।
सूने संसार में,
बेवफा यार में,
दामन-ए-दार में,
रौशनी भी नहीं,चांदनी भी नहीं,जिंदगी भी नहीं।
जिंदगी एक रात,
वाहम कायनात,
आदमी बेशबात,
लोग कोताह कद,
शहर शहर हसद ,
गाँव उन से भी बद ,
उन अंधेरों ने जब पी डाला मुझे,
फिर अचानक कुंवे ने उछाला मुझे,
अपने सीने से बाहर निकला मुझे,
सैकडों मसर थे सामने,
सैकडों उस के बाज़ार थे,
एक बूढी जुलेखा नहीं,
जाने कितने खरीद दार थे,
बढ़ता जाता था युसूफ का मोल,
लोग बिकने को तयार थे।
खुल गए माजबीनों के सर,
रेशमी चादरें हट गयीं,
पलकें झपकीं या नज़रें झुकीं,
मरमरी उंगलियाँ कट गयीं,
हाथ दामन तक आया कोई ,
धज्जियाँ दूर तक बट गयीं।
मैंने डर के लगा दी कुंवे में छलांग,
सर पटकता रहा फिर उसी करब से ,
फिर उसी दर्द से गिडगिडाने लगा,
रौशनी चाहिए,चांदनी चाहिए,जिंदगी चाहिए.
सर पटकता रहा गुनगुनाता रहा,
रौशनी चाहिए,चांदनी चाहिए, जिंदगी चाहिए,
रौशनी प्यार की,चांदनी यार की,जिंदगी डर की।
अपनी आवाज़ सुनता रहा रात दिन ,
धीरे धीरे यक़ीन दिल को आता रहा।
सूने संसार में,
बेवफा यार में,
दामन-ए-दार में,
रौशनी भी नहीं,चांदनी भी नहीं,जिंदगी भी नहीं।
जिंदगी एक रात,
वाहम कायनात,
आदमी बेशबात,
लोग कोताह कद,
शहर शहर हसद ,
गाँव उन से भी बद ,
उन अंधेरों ने जब पी डाला मुझे,
फिर अचानक कुंवे ने उछाला मुझे,
अपने सीने से बाहर निकला मुझे,
सैकडों मसर थे सामने,
सैकडों उस के बाज़ार थे,
एक बूढी जुलेखा नहीं,
जाने कितने खरीद दार थे,
बढ़ता जाता था युसूफ का मोल,
लोग बिकने को तयार थे।
खुल गए माजबीनों के सर,
रेशमी चादरें हट गयीं,
पलकें झपकीं या नज़रें झुकीं,
मरमरी उंगलियाँ कट गयीं,
हाथ दामन तक आया कोई ,
धज्जियाँ दूर तक बट गयीं।
मैंने डर के लगा दी कुंवे में छलांग,
सर पटकता रहा फिर उसी करब से ,
फिर उसी दर्द से गिडगिडाने लगा,
रौशनी चाहिए,चांदनी चाहिए,जिंदगी चाहिए.
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