Sunday, June 14, 2009

ग़ज़ल - ग़ालिब

कोई उम्मीद बेर नहीं आती,कोई सूरत नज़र नहीं आती।

मौत का एक दिन मुईन है, नींद क्यों रात भर नहीं आती।

आगे आती थी हाल-ऐ-दिल पे हंसी,अब किसी बात पर नहीं आती।

जानता हूँ सवाब-ऐ-ताअत ओ ज़हद,पर तबीयत इधर नहीं आती।

है कुछ ऐसी ही बात के चुप हूँ,वरना क्या बात करनी नहीं आती?

क्यों न चीखूं के याद करते हैं, मेरी आवाज़ गर नहीं आती।


मरते हैं आरज़ू में मरने की, मौत आती है पर नहीं आती।

क़ाबा किस मुंह से जाओगे ग़ालिब ! शर्म तुमको मगर नहीं आती।

ग़ज़ल- ग़ालिब

कोई दिन गर ज़िन्दगानी और है,
अपने जी में हमने ठानी और है।

आतिश-ए-दोज़ख में ये गर्मी कहाँ?
सोज़-ए-ग़म हाए नेहानीऔर है।

बारहा देखी हैं उनकी रंजिशें
पर कुछ अब के सरगिरानी और है।

दे के ख़त मुंह देखता है नामावर,
कुछ तो पैगाम-ऐ-जुबानी और है।

हो चुकीं ग़ालिब बलाएँ सब तमाम,
एक मार्ग-ऐ-ना गहानी और है।