Saturday, January 24, 2009

इंशाजी- हाँ तुन्हें भी देखा

इंशाजी,हाँ तुम्हें भी देखा

इंशाजी,हाँ,तुम्हें भी देखा,दर्शन छोटे नाम बहुत ,
चौक में खोटा माल सजा कर ले लेते हो दाम बहोत,
यूँ तो हमारे दर्द में घायल,सुबह बहोत हो शाम बहोत,
इक दिन साथ हमारा दोगे इस में हमें कलाम बहोत।
बातें जिन की गर्म बहोत हैं,काम उन्हीं के खाम बहोत,
कॉफी के हर घूँट पे, दो हांकने में आराम बहोत।

दुनिया की औकात कही,कुछ अपनी भी औकात कहो,
कब तक चाक-ऐ-दहन को सी कर गूंगी बहरी बात कहो,
दाग़-ऐ-जिगर को ला लाए रंगीं,अश्कों को बरसात कहो,
सूरज को सूरज न पुकारो,दिन को अंधी रात कहो.


हाँ,ऐ दिल-ऐ-दीवाना

हाँ,ऐ दिल-ऐ-दीवाना

वोह आज की महफ़िल में, हम को भी न पहचाना,

क्या सोच लिया दिल में, क्यों हो गया बेगाना,

हाँ, ऐ दिल-ऐ-दीवाना।

वो आप भी आते थे,हम को भी बुलाते थे,

किस चाह से मिलते थे,क्या प्यार बताते थे,

कल तक जो हक़ीक़त थी,क्यों वोह आज है अफसाना,

हाँ,ऐ दिल-ऐ-दीवाना।

बस ख़त्म हुआ किस्सा, अब ज़िक्र न हो उसका,

वो शख्स-ओ-फा-ओ-शमन,अब अपना हुआ दुश्मन,

अब उस से नहीं मिलन,

घर उस के नहीं जाना,हाँ,ऐ दिल-ऐ-दीवाना।

हाँ,कल से न जाएँगे,पर आज तो हो आएं,

उस को नहीं पा सकते,अपने ही को खो आएं,

तू बाज़ न आएगा,मुश्किल तुझ को समझाना,

वो भी तेरा कहना था,ये भी तेरा फरमाना,

चल,ऐ दिल-ऐ-दीवाना.

साँप


साँप

ये साँप जो आज फन फैलाए,मेरे रास्ते में खड़ा है,

पड़ा था कदम मेरा चाँद पर जिस दिन,

इसी दिन इसे मार डाला था मैंने,

उखाड़ दिए थे सब दांत कुचला था सर भी ,

मरोड़ी थी दुम,तोड़ दी थी कमर भी।

मगर चाँद से झुक के देखा जो मैंने,

तो दुम इस की हिलने लगी थी,

ये कुछ रेंगने भी लगा था।

ये कुछ रेंगता कुछ घिसटता हुआ,

पुराने शिवाले की जानिब बढ़ा,

जहाँ दूध इस को पिलाया गया,पढ़े पंडितों ने कईं मन्त्र ऐसे,

ये कमबख्त फिर से जिलाया गया।

शिवाले से निकला ये फुंकारता,

रग़-ऐ-अर्ज़ पर डंक सा मारता,

बढ़ा मै के इक बार फिर सर कुचल दूँ,

इसे भारी क़दमों से अपने मसल दूँ,

करीब एक वीरान मस्जिद थी,ये मस्जिद में जा छुपा।

जहाँ इस को पट्रोल से गुस्ल दे कर,

हसीं एक तावीज़ गर्दन में डाला गया,

हुआ सदियों में जितना इंसान बुलंद,

ये कुछ उस से भी ऊंचा उछाला गया,

उछल के ये गिरजा की दहलीज़ पे जा गिरा,

जहाँ इस को सोने की केंचुली पहनाई गई,

सलीब एक चाँदी की, सीने पर इस के सजाई गई,

दिया जिस ने दुनिया को पैगाम-ऐ-अमन

उसी के हयात-आफरीन नाम पर इसे जंग बाज़ी सिखाई गई,

बमों का गुलुबन्द गर्दन में डाला और इस धज से मैदान में इस को निकला,

पड़ा इस का धरती पर साया तो धरती की रफ़्तार रुकने लगी,

अँधेरा अँधेरा ज़मीन से फ़लक़ तक अँधेरा,

जबीं चाँद तारों की झुकने लगी।

हुई जब से साइंस ज़र की मती-अ

जो था अलम का ऐतबार वो उठ गया,

और इस साँप को जिंदगी मिल गयी,

इसे हम ने ज़ह्हाक के भारी काँधे पे देखा था एक दिन,

ये हिन्दू नहीं है मुसलमां नहीं,

ये दोनों का मग्ज़-ओ-खून चाटता है,

बने जब हिन्दू मुसलमान इंसान,

उस दिन ये कमबख्त मर जाएगा.

बहरूपनी


हरूनी

एक गर्दन पे सैकड़ों चेहरे,

और उन चेहरों पे हजारों दाग,

और हर दाग बंद दरवाज़ा,

रौशनी इन से आ नहीं सकती,

रोशनी इन से जा नही सकती।

तंग सीना है हौद-मस्जिद का,

दिल वोह दोना,पुजारियों के बाद,

चाटते रहते हैं जिसे कुत्ते,

कुत्ते दोना जो चाट लेते हैं,

देवताओं को काट लेते हैं।

जाने किस कोख ने जना इस को,

जाने किस ज़हन में जवान हुई,

जाने किस देस से चली कमबख्त,

वैसे ये हर ज़बान बोलती है,

ज़ख्म खिड़की की तरह खोलती है.


और कहती है झाँक कर दिल में,

तेरा मज़हब तेरा अज़ीम ख़ुदा,

तेरी तहज़ीब के हसीं सनम,

सब को खतरे ने आन घेरा है,

बाद उन के जहाँ अँधेरा है।

सर्द हो जाता है लहू मेरा,

बंद हो जाती है खुली आंखे,

सभी दुश्मन हैं कोई दोस्त नही,

मुझ को जिंदा निगल रही है ज़मीन।

ऐसा लगता है राक्षस कोई,

एक गागर कमर में लटका कर,

आसमान पे चढेगा आख़िर-ऐ-शब्,

नूर सारा निचोड़ लाएगा

मेरे तारे भी तोड़ लाएगा ।

ये जो धरती का फट गया सीना,

और बाहर निकल पड़े हैं जुलुस ,

मुझ से कहते हैं तुम हमारे हों,

मै अगर इन का हूँ तो मै क्या हूँ,

मै किसी का नहीं हूँ अपना हूँ।

मुझ को तन्हाई ने दिया है जनम,

मेरा सब कुछ अकेलेपन से है,

कौन पूछेगा मुझ को मेले में?

साथ जिस दिन कदम बढाऊंगा,

चाल मै अपनी भूल जाऊंगा।

ये, और ऐसे ही चंद और सवाल,

ढूँढने पर भी आज तक मुझ को,

जिन के माँ बाप का मिला न सुराग़,

ज़हन में ये उंडेल देती है,

मुझ को मुट्ठी में भींच लेती है,

चाहता हूँ की क़त्ल कर दूँ इसे,

वार लेकिन जब इस पर करता हूँ,

मेरे सीने पे ज़ख्म उभरते हैं,

जाने क्या मेरा इसका रिश्ता है।

आँधियों में अज़ान दी मैंने,

शंख फूँका अँधेरी रातों में,

घर के बाहर सलीब लटकाई,

एक एक घर से इस को ठुकराया,

शहर से दूर जाके फ़ेंक आया।

और ऐलान कर दिया के उट्ठो,

बर्फ सी जम गयी है सीने में,

गर्म बोसों से इस को पिघला दो,

कर लो जो भी गुनाह वो कम है,

आज की रात जश्न-ऐ-आदम है,

ये मेरी आस्तीन से निकली,

रख दिया दौड़ के चराग़ पर हाथ,

मल दिया फिर अँधेरा चेहरे पर,

होंठ से दिल की बात लौट गयी,

दर तक आ के बारात लौट गयी।

इस ने मुझ को अलग बुला के कहा,

आज की जिंदगी का नाम है खौफ़।

खौफ़ ही वोह ज़मीं है जिस में ,

फ़र्क़ी उगती है,फ़र्क़ी पलती है,

धारें, सागर से कट चलती हैं।

खौफ़ जब तक दिलों में बाकी है,

सिर्फ़ चेहरा बदलते रहता है,

सिर्फ़ लहज़ा बदलते रहता है,

कोई मुझ को मिटा नही सकता,

जश्न-ऐ-आदम मना नहीं सकता.

मकान
आज की रात बहोत गर्म हवा चलती है,
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी,
सब उठो,मै भी उठूँ,तुम भी उठो,तुम भी उठो,
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी।

ये ज़मीन तब भी निगल लेने पे आमादा थी,
पाँव जब टूटती शाखों से उतारे हम ने,
उन मकानों को ख़बर है न मकीनों को ख़बर,
उन दिनों की जो गुफाओं में गुजारे हम ने।

हाथ ढलते गए सांचें में तो थकते कैसे?
नक़्स के बाद नए नक़्स निखरे हम ने,
की ये दीवार बुलंद और बुलंद और बुलंद,
बाम-ओ-दर और ज़रा और संवारे हम ने ,
आंधियां तोड़ लिया करतीं थीं शमाओं की लवें,
जड़ दिए इस लिए बिजली के सितारे हम ने,
बन गया क़स्र तो पहरे पे कोई बैठ गया,
सो रहे ख़ाक पे हम शोरिश-ऐ-तामील लिए,
अपनी नस नस में लिए मेहनत-ऐ-पैहम की थकन,
बंद आंखों में उस क़स्र की तस्वीर लिए,
दिन ढलता है इस तरह सिरों पर अब तक,
रात आंखों में खटकती है सियाह तीर लिए।

आज की रात बहोत गर्म हवा चलती है,
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी,
सब उठो,मै भी उठूँ,तुम भी उठो,तुम भी उठो,
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी।

ख़ुद में मिला ले-इब्ने इंशा

ख़ुद में मिला ले या हम से आ मिल

ख़ुद में मिला ले या हम से आ मिल,
ऐ नूर-कामिल ऐ नूर-कामिल,
रोज़ अज़ल भी रिश्ता यही था
तू हम में निहाँ हम तुझ में शामिल।
हम सा रिज़ा जो ,तुम सा जफ़ा जो,
देखा न मआमूल पाया न आमिल,
दिल की ज़बान है,उस को तो समझो,
हम तुम से बोलें तेलगू न तामिल,
ऐ बेवफ़ा मिल,ऐ बेवफ़ा मिल.