Saturday, November 29, 2008

गीत- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

चलो फिर से मुस्कुराएँ,चलो फिर से दिल जलाएँ
जो गुज़र गई हैं रातें,उन्हें फिर जगा के लायें,
जो बिसर गई हैं बातें,उन्हें याद में बुलाएँ
चलो फिर से दिल लगाएं चलो फिर से मुस्कुराएँ।

किसी शै नशीं पे झलकी, वोह धनक किसी क़बा की,
किसी रग में कसमसाई, वो कसक किसी अदा की,
कोई हर्फ़-ऐ-बे-मुरव्वत,किसी कुंज-ऐ-लब से छूटा
वोह छनक के शीशा-ऐ-दिल,ते बाम फिर से टूटा ,
ये मिलन की , ना मिलन की ,ये लगन की और जलन की,
जो सहीं हैं वारदातें ,जो गुज़र गई हैं रातें,
जो बिसर गयी हैं बातें।
कोई इन की धुन बनाएं, कोई इन का गीत गाएं,
चलो फिर से मुस्कुराएं,चलो फिर से दिल जलाएँ।

शायर लोग-दो नज्में-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

हर इक दौर में हम, हर ज़माने में हम
दीन-ओ-दुनिया की दौलत लुटाते रहे
फिक्र-ओ-फाके का तोषा संभाले हुए
जो भी रास्ता चुना उस पे चलते रहे
माल वाले हिक़ारत से तकते रहे
त-आन करते रहे हाथ मलते रहे
हम ने उन पर किया हर्फ़-ऐ-हक़ संग ज़न
जिनकी सोहबत से दुनिया लरज़ती रही
जिन पे आंसू बहाने को कोई न था
अपनी आँख उनके ग़म में बरसती रही
सब से ओझल हुए हुक्म-ऐ-हाकिम पे हम
क़ैद खाने सहे ताजियाने सहे
लोग सुनते रहे साज़-ऐ-दिल की सदा
अपने नग्में सलाखों से छनते रहे
खुन्च्का दहर का खुन्च्का आइना
दुःख भरी खलक का दुःख भरा दिल हैं हम