Tuesday, July 14, 2009

शाम-ए-फ़राक - फैज़

शाम-ए-फराक़ 'अब न पूछ' आई और आके ढल गई ,
दिल था के फ़िर बहल गया जाँ थी के फिर सम्हल गई।
बज्म-ए-ख़याल में तेरे हुस्न की शम्में जल गई ,
दर्द का चाँद बुझ गया हिज्र की रात ढल गई।
जब तुझे याद कर लिया सुबह महक महक उठी,
जब तेरा गम जला लिया , रात मचल मचल गई।
दिल से तो हर मआमूल करके चले थे साफ़ हम,
कहने में उन के सामने बात बदल बदल गई।
आखिर-ए-शब् के हम सफर 'फैज़' न जाने क्या हुए,
रह गई कसजग सबा, सुबह किधर निकल गई.

शाख़ पर खून-ए-गुल - फ़ैज़

शाख़ पर खून-ए-गुल रवां है वही ,
शोखी-ए-रंग-ए-गुलिस्तान है वही।
सर वही है तो आस्तां है वही,
जाँ वही है तो जानेजाँ है वही।
बर्क़ सौ बार गिर के खाक हुई,
रौनक़-ए-खाक-ए-आशियाँ है वही।
आज की शब् वस्ल की शब् है,
दिल से हर रोज़ दास्ताँ है वही।
चाँद तारे इधर नहीं आते,
वरना ज़िन्दाँ में आसमाँ है वही.