Thursday, November 27, 2008

दावत-कैफ़ी आज़मी


This was the nazm,I always use to recite,whenever in company of friends,Kaifi Aazami has
opened the doors to self search and this inquisitiveness leads to paths of realization.
कोई देता हैं डर-ऐ-दिल पे मुसलसल आवाज़
और फिर अपनी ही आवाज़ से घबराता है
अपने बदले हुए अंदाज़ का एहसास नहीं
मेरे बहके हुए अंदाज़ से घबराता है।
साज़ उठाया है के मौसम का तकाज़ा था यही
काँपता हाथ मगर साज़ से घबराता है,
राज़ को है किसी हमराज़ की मुद्दत से तलाश,
और दिल सोहबत-ऐ-हमराज़ से घबराता है।
शौक़ ये है के उडे वो तो ज़मीन साथ उडे
हौसला यह है के परवाज़ से घबराता है।
तेरी तकदीर मैं आसाइश-ऐ-अंजाम नहीं
ऐ के तू शोरिश-ऐ-आगाज़ से घबराता है।

कभी आगे कभी पीछे कोई रफ़्तार है ये
हम को रफ़्तार का आहंग बदलना होगा
ज़हन के वास्ते सांचे तो न ढलेगी हयात
ज़हन को आप ही हर सांचे में ढलना होगा
ये भी जलना कोई जलना है के शोला न धुवां
अब जला देंगे ज़माने को जो जलना होगा
रास्ते घूम के सब जाते हैं मजिल की तरफ़
हम किसी रुख से चलें ,साथ ही चलना होगा।

नजराना- कैफी आज़मी

तुम परेशां न हो बाब ऐ करम वां न करो
और कुछ देर पुकारूँगा चला जाऊँगा
इस कूचे मैं जहाँ चाँद उगा करते हैं,शब् ऐ तारीक़ गुज़रूँगा,चला जाऊँगा
रास्ता भूल गया या यही मंजिल है मेरी
कोई लाया हैं के ख़ुद आया हूँ मालूम नहीं
कहते हैं हुस्न की नज़रें भी हसीं होती हैं
मै भी कुछ लाया हूँ क्या लाया हूँ मालूम नहीं
यूँ तो जो कुछ था मेरे पास मै सब बेच आया
कहीं इनाम मिला कहीं क़ीमत भी नहीं
कुछ तुम्हारे लिए आँखों मैं छुपा रखा है
देखो लो और न देखो तो शिकायत भी नहीं

इक तो इतनी हसीं दूसरे ये आराइश
जो नज़र पड़ती है चेहरे पे ठहर जाती है
मुस्कुरा देती हो रस्मन भी अगर महफ़िल में
इक धनक टूट के सीनों में बिखर जाती है ।
गर्म बोसों से तराशा हुआ नाज़ुक पैकर
जिस की एक आंच से हर रूह पिघल जाती है
मैंने सोचा है तो सब सोचते होंगे शायद,
प्यास इस तरह भी क्या सांचे मैं ढल जाती है ?
क्या कमी है जो करोगी मेरा नजराना कबूल
चाहने वाले बहोत चाह के अफसाने बहोत
इक ही रात सही गर्मी-ऐ-हंगामा-ऐ-इश्क
इक ही रात मैं जल मरते हैं परवाने बहोत।

फिर भी इक रात मैं सौ तरह के मोड़ आते हैं
काश तुमको कभी तन्हाई का एहसास न हो
काश ऐसा न हो घेरे रहे दुनिया तुमको
और इस तरह के जिस तरह कोई पास न हो ।

आज की रात जो मेरी ही तरह तनहा है
मै किसी तरह गुज़रूँगा चला जाऊंगा,
तुम परेशां न हो बाब-ऐ-करम वां न करो
कुछ देर और पुकारूँगा चला जाऊंगा ।

पांव से लहू को धो डालो- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

हम क्या करते, किस राह चलते
हर राह मैं कांटे बिखरे थे ।
उन रिश्तों के जो छूट गए
उन सदियों के यारानो के,
जो इक इक कर के टूट गए
जिस राह चले जिस समत गए
यूँ पाँव लहू लुहान हुए
सब देखने वाले कहते थे
यह कैसी रीत रचाई है,
यह मेहंदी क्यों लगाई है
वोह कहते थे क्यों काहाज़-ऐ- वफ़ा
का नाहक चर्चा करते हों !
पाँव से लहू को धो डालो
यह राहें जब अट जायेंगी
सौ रास्ते इन से फूटेंगे
तुम दिल को सम्हालो जिस में अभी
सौ तरह के नश्तर टूटेंगे .