Wednesday, December 24, 2008

वसीयत

वसीयत (कैफ़ी आज़मी )
(अपने बेटे बाबा के नाम)

मेरे बेटे मेरी आँखें मेरे बाद उन को दे देना
जिन्होंने रेत में सर गाड़ रखे हैं
और ऐसे मुतमईन हैं जैसे उन को
न कोई देखता है और न कोई देख सकता है ।
मगर ये वक़्त की जासूस नज़रें
जो पीछा करती हैं सबका ज़मीरों के अंधेरे तक
अँधेरा नूर पर रहता है ग़ालिब बस सवेरे तक,
सवेरा होने वाला है।

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मेरे बेटे मेरे बाद मेरी आँखें उन को दे देना,
कुछ अंधे सूरमा जो तीर अंधेरे में चलाते हैं,
सदा दुश्मन का सीना ताकते ख़ुद ज़ख्म खाते हैं,
लगा कर जो वतन को दांव पर कुर्सी बचाते हैं,
भुना कर खोटे सिक्के,धरम के जो पुन्न कमाते हैं।
जता दो उन को ऐसे ठग,कभी पकड़े भी जाते हैं।

मेरे बेटे उन्हें थोड़ी सी खुद्दारी भी दे देना
जो हाकिम क़र्ज़ ले के उसको अपनी जीत कहते हैं,
जहाँ रखते हैं सोना रहन,ख़ुद भी रहन रहते हैं,
और उसको भी वो अपनी जीत कहते हैं।
शरीक-ऐ-जुर्म हैं ये सुन के भी जो खामोश रहते हैं,
क़सूर अपना ये क्या कम है ,के हम सब उन को सहते हैं।
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मेरे बेटे मेरे बाद उन को मेरा दिल भी दे देना,
के जो शर रखते हैं सीने में अपने दिल नहीं रखते,
है इनकी आस्तीं में वो भी जो क़ातिल नहीं रखते,
जो चलते हैं उन्हीं रास्तों पे जो मंजिल नहीं रखते,
ये मजनूं अपनी नज़रों में कोई ,
महमूल नहीं रखते,
ये अपने पास कुछ भी फख्र के क़ाबिल नहीं रखते,
तरस खा कर जिन्हें जनता ने कुर्सी पर बिठाया है,
वो ख़ुद से तो न उठेंगे उन्हें तुम्हीं उठा देना
घटाई है जिन्होंने कीमत अपने सिक्के की
ये ज़िम्मा है तुम्हारा उन की कीमत तुम घटा देना,
जो वो फैलाएँ दामन ये वसीयत याद कर लेना,
उन को हर चीज़ दे देना पर, उन्हें वोट न देना।


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