मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
(धन्यवाद डॉ अमर ज्योति का -जिन्होंने इस अनुवाद में मेरी मदद की)
मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
मैंने समझा के तू है तो दरख्शां है हयात,
तेरा ग़म है तो ग़म-ऐ-दहर का झगड़ा क्या है?
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात,
तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है?
तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूं हो जाए ,
यूँ न था मैंने फ़क़त चाह था के यूँ हो जाए,
और भी दुःख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा ,
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा,
अनगिनत सदियों के तारीक़ बहिमाना तासम ,
रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमखाब में बुनवाए हुए,
जा बजा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म,
खाक में लिपटे हुए खून में नहलाए हुए,
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे,
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे,
और भी दुःख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा,
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा,
मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग।
4 comments:
हार्दिक आभार ऐसी नायाब नज़्म फिर से पढ़वाने के लिये। कुछ छोटी-मोटी भूलें सुधार लें तो और भी बेहतर होगा।:-
दूसरी पँक्ति में वर्खशां के स्थान पर दरख़्शां।
चौथी पँक्ति में शबात के स्थान पर सबात।
छठी पँक्ति में नगवां के स्थान पर निगूं।
सातवीं पँक्ति में चाह के स्थान पर चाहा।
दसवीं पँक्ति में इन गन्त के स्थान पर अनगिनत और बेमाना तासम के स्थान पर बहीमाना तिलिस्म।
ग्यारहवीं----कमखाब के स्थान पर कमख़ाब।
बारहवीं----बेकती हुए कूचे के स्थान पर बिकते हुए कूचा।
तेरहवीं -----लट्ठे हुए के स्थान पर लिपटे हुए।
चौदहवीं----इधर के स्थान पर उधर।
पन्द्रहवीं----दिलकशीं के स्थान पर दिलकश।
आशा और अनुरोध है कि आप अन्यथा नहीं लेंगे।
आनन्द आया अपनी पसंदीदा गज़ल को देखकर.
बहुत कुछ याद या गया पुराना .... कुछ अपना सा .... वो जमाना था ..... बस ...
जो भी हो लिखते रहिये
umda ke liye dhanyavad, yaad dilwate rahiye isi tarah .shukriya aapko
dr.bhoopendra
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