Tuesday, January 13, 2009

ग़ज़ल

हाथ आ कर लगा गया कोई,
मेरा छप्पर उठा गया कोई,
लग गया एक मशीन में मै भी,
शहर में ले के आ गया कोई।

मै खड़ा था के पीठ पर मेरी,
इश्तहार एक लगा गया कोई।

ये सदी धुप को तरसती है,
जैसे सूरज को खा गया कोई।

ऐसी महंगाई है की चेहरा भी,
बेच के अपना खा गया कोई।

अब वोह अरमान हैं न वोह सपने,
सब कबूतर उड़ा गया कोई।

वो गए जब से ऐसा लगता है,
छोटा मोटा ख़ुदा गया कोई।

मेरा बचपन भी साथ ले आया,
गाँव से जब भी आ गया कोई.

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