Tuesday, August 11, 2009

दिल-ए-मन मुसाफिर-ए-मन - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

मेरे दिल,मेरे मुसाफिर,
हुआ फिरसे हुक्म सादिर ,
के वतन बदर हों हम तुम

दें गली गली सदाएं,
करें रुख नगर नगर का,
के सुराग़ कोई पाएं,
किसी यार-ए-नामाबर का।

हर एक अजनबी से पूछें,
जो पता था अपने घर का,
सर-ए-कूए नाशेनायाँ ,
हमें दिन से रात करना।

कभी इस से बात करना,
कभी उस से बात करना,
तुम्हें क्या कहूं की क्या है,
शब् ए ग़म बुरी बला है।

हमें ये भी था गनीमत,
जो कोई शुमार होता,
हमें क्या बुरा था मरना,
अगर एक बार होता।