Tuesday, August 18, 2009

बासठ्वीं सालगिरह पर - "तुम ही कहो "- फ़ैज़

जब दुःख की नदिया में हम ने,जीवन की नाव डाली थी,
था कितना कस बल बाहों में, लोहों में कितनी लाली थी।

यूँ लगता था, दो हाथ लगे और नाव पूरम पार चली,
ऐसा न हुआ , हर धारे में कुछ अनदेखी मझधारें थीं,
कुछ मांझी थे अनजान बहुत,
कुछ बे परखीं पतवारें थीं,
अब जो भी चाहो छान करो,
अब जितना चाहो दोष धरो,
नदिया तो वही है नाव वही,
अब तुम ही कहो क्या करना है,
अब कैसे पार उतरना है।

जब अपनी छाती में हम ने,
उस देस के घाव देखे थे,
था वेदों पर विश्वास बहुत,
और याद बहुत से नुस्खे थे ,
यूँ लगता था बस कुछ दिन में ,
सारी बिपदा कट जायेगी,
और सब घाव भर जाएंगे,
ऐसा न हुआ की रोग अपने ,
कुछ इतने ढेर पुराने थे,
वेद उनकी टोह को पा न सके,
और टोटके सब बेकार गए,
अब जो भी चाहो छान करो,
अब जितना चाहो दोष धरो ,
छाती तो वही है,
घाव वही,
अब तुम ही कहो क्या करना है,
ये घाव कैसे भरना है।



2 comments:

रचना गौड़ ’भारती’ said...

आज़ादी की 62वीं सालगिरह की हार्दिक शुभकामनाएं। इस सुअवसर पर मेरे ब्लोग की प्रथम वर्षगांठ है। आप लोगों के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष मिले सहयोग एवं प्रोत्साहन के लिए मैं आपकी आभारी हूं। प्रथम वर्षगांठ पर मेरे ब्लोग पर पधार मुझे कृतार्थ करें। शुभ कामनाओं के साथ-
रचना गौड़ ‘भार

Anonymous said...

Rachna jee. Ek avsar par aapko bahut bahut Shubhkamnayen. Jay Ho..Shubh Ho..