Friday, August 14, 2009

क्या हिंद का ज़िन्दाँ- जोश मलीहाबादी

क्या हिंद का ज़िन्दाँ काँप रहा है,
गूँज रहीं हैं तक्बीरें,
उकताए हैं शायद कुछ कैदी,
और तोड़ रहे हैं,जंजीरें ।

दीवारों के नीचे आ आ कर
क्यों जमा हुए हैं ज़िन्दानी,
सीनों में तलातुम बिजली का,
आंखों में चमकती शमशीरें।

क्या उनको ख़बर थी होठों पर,
जो मोहर लगाया करते थे,
इक रोज़ इसी खामोशी से ,
तप्केंगी दहकती तक़रीरें।

सम्हलो के ज़िन्दाँ गूँज उठा,
झपटो के वो कैदी छूट गए,
उठ्ठो के वो बैठी दीवारें,
दौडो के वो टूटी जंजीरें।

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