Friday, August 21, 2009

ज़ुल्मतकदे में मेरे शब्-ए-गम - ग़ालिब

ज़ुल्मतकदे में मेरे,शब्-ए-गम का जोश है,
इक शम्मा है दलील-ए-सहर, सो खामोश है।

न मुज़्दा-ए-विसाल न नज़ारा-ए-जमाल,
मुद्दत हुई की आस्तीं-ए-चश्म-ओ-गोश है।

मैंने किया है हुस्न-ए-खुद्दार को बे हिजाब ,
ऐ शौक़ याँ इजाज़त-ए-तस्लीम-ए-होश है।

गौहर को इक़्द-ए-गर्दन -ए-खुबाँमें देखना,
क्या औज पर सितारा-ए-गौहरफ़रोश है।

दीदार ,वादा , हौला, साक़ी निगाह-ए-मस्त,
बज़्म-ए-ख़याल मैक़दा-ए-बेखरोश है।

दाग़-ए-फिराक़-ए-सोहबत-ए-शब् की जली हुई,
इस शम्मा रह गई है सो वो भी खामोश है।

आते हैं गैब से ये मज़ामीं ख्याल में,
गालिब, सरीर-ए-खामाँ नवा-ए-सरोश है.

2 comments:

daanish said...

waah......
aisi khoobsurat gzl !!

nimish said...

ना मुज़्दा-ए-विसाल न नज़्ज़ारा-ए-जमाल
मुद्दत हुई कि आश्ती-ए-चश्म-ओ-गोश है
one word was missing in above couplet correct couplet is given above.
its a beautiful gazal thanx for sharing.