Saturday, August 22, 2009

दोनों जहाँ तेरी मज्जत में हार के- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दोनों जहाँ तेरी मज्जत में हार के,
वोह जा रहा है कोई शब्-ए-गम गुजार के।

वीरान है मैकदा , खुम-ओ-सागर उदास हैं,
तुम क्या गए के रूठ गए दिन बहार के ।

एक फुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन ,
देखें हैं हम ने हौसले परवरदिगार के।

दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया,
तुझसे भी दिल फरेब हैं गम रोज़गार के।

धीरे से मुस्कुरा तो दिए थे वो आज फ़ैज़,
मत पूछ वलवलेअह दिल-ए-नाकर्दा कार के ।


2 comments:

Mithilesh dubey said...

वाह क्या बात है दिल छू लेनी वाली लाजवाब रचना।

अनिल कान्त said...

मुझे आपकी रचना बहुत पसंद आई....अच्छा लिखते हैं आप

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति