लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़कर माह-ए-तमाम हुए,
हम हर बुर्ज में घटते घटते सुबह तलक गुमनाम हुए।
उन लोगों की बात करो जो इश्क़ में खुश अंजाम हुए,
नज़्द में क़ैस यहाँ पर इंशा ख़्वार हुए नाकाम हुए ।
किसका चमकता चेहरा लायें,किस सूरज से मांगें धुप,
घोर अँधेरा छा जाता है,खल्वत-ए-दिल में शाम हुए।
एक से एक जुनूँ का मारा इस बस्ती में रहता है,
एक हमीं होशियार थे यारों,एक हमीं बदनाम हुए।
शौक़ की आग नफ़्स की गर्मी घटते घटते सर्द न हो?
चाह की राह दिखा कर तुम तो वक्फ़-ए-दरीच-ओ-तमाम हुए।
उन बहारों बाग़ की बातें कर के जी को दुखाना क्या?
जिन को एक ज़माना गुजरा कुञ्ज-ए-कफ़स में राम हुए।
इंशा साहब पौ फटती है, तारे डूबे,सुबह हुई,
बात तुम्हारी मान के हम तो शब् भर बे आराम रहे।
1 comment:
अच्छी गज़ल प्रेषित की है।आभार।
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