Tuesday, September 8, 2009

कभी कभी याद में उभरते हैं- फ़ैज़

कभी कभी याद में उभरते हैं नक़्श-ए-माज़ी
मिटे मिटे से
वो आज़माइश दिल-ओ-नज़र की, वो कुर्बतें सी, वो फासले से

कभी कभी आरजू के सेहरा में,आ के रुकते हैं क़ाफ़िले से

वो सारी बातें लगाव की सी, वो सारे अन्वां विसाल के से

निगाह-ओ-दिल को क़रार कैसा , निशात-ओ-ग़म में कमी कहाँ की

वो जब मिले हैं तो उन से, हर बार की है उल्फ़त नए सिरे से

बहुत गिरां है ये ऐश-ए-तन्हाई , कहीं सबक तर , कहीं गवारा

वो दर्द-ए-पिन्हाँ के सारी दुनिया रफ़ीक़ थी वास्ते से

तुम्ही कहो रिंद-ओ-महतसब में है आज सब को न फ़र्क़ ऐसा

ये आ के बैठे हैं मैकदे में , वो उठ के आए हैं मैकदे से .

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