Tuesday, July 14, 2009

शाख़ पर खून-ए-गुल - फ़ैज़

शाख़ पर खून-ए-गुल रवां है वही ,
शोखी-ए-रंग-ए-गुलिस्तान है वही।
सर वही है तो आस्तां है वही,
जाँ वही है तो जानेजाँ है वही।
बर्क़ सौ बार गिर के खाक हुई,
रौनक़-ए-खाक-ए-आशियाँ है वही।
आज की शब् वस्ल की शब् है,
दिल से हर रोज़ दास्ताँ है वही।
चाँद तारे इधर नहीं आते,
वरना ज़िन्दाँ में आसमाँ है वही.

1 comment:

ओम आर्य said...

दिल से हर रोज़ दास्ताँ है वही।
चाँद तारे इधर नहीं आते,
वरना ज़िन्दाँ
में आसमाँ है वही.
dil ke karib lagi yah panktiyan.....khubsoorat