Thursday, November 27, 2008

नजराना- कैफी आज़मी

तुम परेशां न हो बाब ऐ करम वां न करो
और कुछ देर पुकारूँगा चला जाऊँगा
इस कूचे मैं जहाँ चाँद उगा करते हैं,शब् ऐ तारीक़ गुज़रूँगा,चला जाऊँगा
रास्ता भूल गया या यही मंजिल है मेरी
कोई लाया हैं के ख़ुद आया हूँ मालूम नहीं
कहते हैं हुस्न की नज़रें भी हसीं होती हैं
मै भी कुछ लाया हूँ क्या लाया हूँ मालूम नहीं
यूँ तो जो कुछ था मेरे पास मै सब बेच आया
कहीं इनाम मिला कहीं क़ीमत भी नहीं
कुछ तुम्हारे लिए आँखों मैं छुपा रखा है
देखो लो और न देखो तो शिकायत भी नहीं

इक तो इतनी हसीं दूसरे ये आराइश
जो नज़र पड़ती है चेहरे पे ठहर जाती है
मुस्कुरा देती हो रस्मन भी अगर महफ़िल में
इक धनक टूट के सीनों में बिखर जाती है ।
गर्म बोसों से तराशा हुआ नाज़ुक पैकर
जिस की एक आंच से हर रूह पिघल जाती है
मैंने सोचा है तो सब सोचते होंगे शायद,
प्यास इस तरह भी क्या सांचे मैं ढल जाती है ?
क्या कमी है जो करोगी मेरा नजराना कबूल
चाहने वाले बहोत चाह के अफसाने बहोत
इक ही रात सही गर्मी-ऐ-हंगामा-ऐ-इश्क
इक ही रात मैं जल मरते हैं परवाने बहोत।

फिर भी इक रात मैं सौ तरह के मोड़ आते हैं
काश तुमको कभी तन्हाई का एहसास न हो
काश ऐसा न हो घेरे रहे दुनिया तुमको
और इस तरह के जिस तरह कोई पास न हो ।

आज की रात जो मेरी ही तरह तनहा है
मै किसी तरह गुज़रूँगा चला जाऊंगा,
तुम परेशां न हो बाब-ऐ-करम वां न करो
कुछ देर और पुकारूँगा चला जाऊंगा ।

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