Monday, December 8, 2008

ग़ालिब

गई वोह बात के हो गुफ्तगू तो क्यों कर हो
कहे से कुछ न हुआ " फिर कहो " -तो क्यों कर हो?
हमारे ज़हन में इस फिक्र का है नाम विसाल
के गर "न हो "तो कहाँ जाएँ " हो " - तो क्यों कर हो ?
अदब है और यही कशमकश तो क्या कीजिए ?
हया है और यही गो मगो- तो क्यों कर हो ?
तुम्हीं कहो के गुज़ारा सनम परस्तों का
बुतों की हवा गर ऐसी ही खु -तो क्यों कर हो?
उलझते हो तुम अगर देखे हो आइना
जो तुम से शहर में हों एक दो- तो क्यूँ कर हो?
जिसे नसीब हो रोज़ स्याह मेरा सा,
वोह शख्स दिन न कहे रात को- तो क्यों कर हो?
हमें फिर उन से उम्मीद और उन्हें हमारी क़द्र?
हमारी बात बात ही पूछें न वोह -तो क्यों कर हो ?
ग़लत न था ' हमें ख़त पर ' गुमानतसल्ली का
न माने ' दीद, दीदार जो ' -तो क्यों कर हो?
बताओ उस मशर को देख कर के मुझ को करार ,
ये नेश हो रग-ऐ-जान में फरो- तो क्यूँ कर हो?

मुझे जुनून नहीं ग़ालिब वले बकूल-ऐ-हज़रत
फिराक-ऐ-यार में तस्कीं हो तो- क्यूँ कर हो?

No comments: