Wednesday, December 24, 2008

कुत्ते - फ़ैज़


ये गलियों के आवारह बेकार कुत्ते
के बख्शा गया जिनको ज़ौक़-ऐ-गदाई
ज़माने की फटकार सरमाया उन का
जहाँ भर की दुत्कार उन की कमाई ।

न आराम शब् को न राहत सबेरे,
गलाज़त में घर नालियों में बसेरे
जो बिगडें तो एक दूसरे से लड़ा दो
ज़रा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले
ये फ़ाकों से उकता के मर जाने वाले
ये मज़लूम मख्लूक़ गर सर उठाएँ
तो इंसान सब सरकशी भूल जाए
ये चाहें तो दुनिया को अपना बनालें
ये आक़ाओं की हड्डियाँ तक चबा लें
कोई इन को अहसास-ऐ-ज़िल्लत दिखा दे
कोई इन की सोई हुई दुम हिला दे.





1 comment:

Prakash Badal said...

भाई आपका स्वागत है। लिखते रहें