Friday, December 19, 2008

सोमनाथ-ताज के नाम

कैफ़ी की ये नज़्म- बम्बई में ताज पर हुए हमले के बाद और भी relevant(प्रसंगोचित) हो जाती है:

बुत शिकन कोई कहीं से भी न आने पाये
हमने कुछ बुत अभी सीने में सजा रखे हैं
अपनी यादों में बसा रक्खे हैं।
दिल पे ये सोच कर पथराव करो दीवानों,
के जहाँ सनम अपने हमने छुपा रक्खे हैं,
वहीँ ग़ज़नी के खुदा रक्खे हैं।

बुत जो टूटे तो किसी तरह बना लेंगे उन्हें
टुकड़े टुकड़े सही दामन में उठा लेंगे उन्हें
फिर से उजडे हुए सीने में सजा लेंगे उन्हें।
गर ख़ुदा टूटेगा,हम तो न बना पाएंगे,
उसके बिखरे हुए टुकड़े न उठा पाएंगे,
तुम उठा लो तो उठा लो शायद,
तुम बना लो तो बना लो शायद,
तुम बनाओ तो ख़ुदा जाने बनाओ कैसा?
अपने जैसा ही बनाया तो कायामत होगी
प्यार होगा न ज़माने में मोहब्बत होगी
दुश्मनी होगी अदावत होगी
हम से उसकी न इबादत होगी .

वहशत-ऐ-बुत शिकनी देख के हैरान हूँ मै
बुत परस्ती मेरा शेवा है के इंसान हूँ मै
इक न इक बुत तो हर इक दिल मैं छुपा होता है
उस के सौ नामों में इक नाम ख़ुदा होता है ।





1 comment:

अभिनव said...

बहुत सुंदर