Thursday, January 1, 2009

इंशाजी क्यों आशिक हो कर

इंशाजी क्यों आशिक हो कर

इंशाजी क्यों आशिक हो कर,
दर्द के हाथों शोर करो,
दिल को और दिलासा दे लो,
मन को मियां कठोर करो।
आज हमें उस दिल की हकायत ,
दूर तलक ले जानी है,
शाख़ पे गुल है बाग़ में बुलबुल,
जी में मगर वीरानी है।
इश्क़ है रोग कहा था हम ने,
आप ने लेकिन माना भी,
इश्क़ में जी से जाते देखे, इंशा जैसे दानां भी,
हम जिस के लिए हर देस फिरे, जोगी का बदल कर भेस फिरे,
बस दिल का भरम रह जाएगा,
ये दर्द तो अच्छा कहाँ होगा.

1 comment:

Anonymous said...

well.. it's like I said!