Saturday, January 24, 2009

बहरूपनी


हरूनी

एक गर्दन पे सैकड़ों चेहरे,

और उन चेहरों पे हजारों दाग,

और हर दाग बंद दरवाज़ा,

रौशनी इन से आ नहीं सकती,

रोशनी इन से जा नही सकती।

तंग सीना है हौद-मस्जिद का,

दिल वोह दोना,पुजारियों के बाद,

चाटते रहते हैं जिसे कुत्ते,

कुत्ते दोना जो चाट लेते हैं,

देवताओं को काट लेते हैं।

जाने किस कोख ने जना इस को,

जाने किस ज़हन में जवान हुई,

जाने किस देस से चली कमबख्त,

वैसे ये हर ज़बान बोलती है,

ज़ख्म खिड़की की तरह खोलती है.


और कहती है झाँक कर दिल में,

तेरा मज़हब तेरा अज़ीम ख़ुदा,

तेरी तहज़ीब के हसीं सनम,

सब को खतरे ने आन घेरा है,

बाद उन के जहाँ अँधेरा है।

सर्द हो जाता है लहू मेरा,

बंद हो जाती है खुली आंखे,

सभी दुश्मन हैं कोई दोस्त नही,

मुझ को जिंदा निगल रही है ज़मीन।

ऐसा लगता है राक्षस कोई,

एक गागर कमर में लटका कर,

आसमान पे चढेगा आख़िर-ऐ-शब्,

नूर सारा निचोड़ लाएगा

मेरे तारे भी तोड़ लाएगा ।

ये जो धरती का फट गया सीना,

और बाहर निकल पड़े हैं जुलुस ,

मुझ से कहते हैं तुम हमारे हों,

मै अगर इन का हूँ तो मै क्या हूँ,

मै किसी का नहीं हूँ अपना हूँ।

मुझ को तन्हाई ने दिया है जनम,

मेरा सब कुछ अकेलेपन से है,

कौन पूछेगा मुझ को मेले में?

साथ जिस दिन कदम बढाऊंगा,

चाल मै अपनी भूल जाऊंगा।

ये, और ऐसे ही चंद और सवाल,

ढूँढने पर भी आज तक मुझ को,

जिन के माँ बाप का मिला न सुराग़,

ज़हन में ये उंडेल देती है,

मुझ को मुट्ठी में भींच लेती है,

चाहता हूँ की क़त्ल कर दूँ इसे,

वार लेकिन जब इस पर करता हूँ,

मेरे सीने पे ज़ख्म उभरते हैं,

जाने क्या मेरा इसका रिश्ता है।

आँधियों में अज़ान दी मैंने,

शंख फूँका अँधेरी रातों में,

घर के बाहर सलीब लटकाई,

एक एक घर से इस को ठुकराया,

शहर से दूर जाके फ़ेंक आया।

और ऐलान कर दिया के उट्ठो,

बर्फ सी जम गयी है सीने में,

गर्म बोसों से इस को पिघला दो,

कर लो जो भी गुनाह वो कम है,

आज की रात जश्न-ऐ-आदम है,

ये मेरी आस्तीन से निकली,

रख दिया दौड़ के चराग़ पर हाथ,

मल दिया फिर अँधेरा चेहरे पर,

होंठ से दिल की बात लौट गयी,

दर तक आ के बारात लौट गयी।

इस ने मुझ को अलग बुला के कहा,

आज की जिंदगी का नाम है खौफ़।

खौफ़ ही वोह ज़मीं है जिस में ,

फ़र्क़ी उगती है,फ़र्क़ी पलती है,

धारें, सागर से कट चलती हैं।

खौफ़ जब तक दिलों में बाकी है,

सिर्फ़ चेहरा बदलते रहता है,

सिर्फ़ लहज़ा बदलते रहता है,

कोई मुझ को मिटा नही सकता,

जश्न-ऐ-आदम मना नहीं सकता.

1 comment:

Unknown said...

Awesome lines
may you post 'ek bewa ki khudkashi' full poem