Saturday, January 24, 2009

मकान
आज की रात बहोत गर्म हवा चलती है,
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी,
सब उठो,मै भी उठूँ,तुम भी उठो,तुम भी उठो,
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी।

ये ज़मीन तब भी निगल लेने पे आमादा थी,
पाँव जब टूटती शाखों से उतारे हम ने,
उन मकानों को ख़बर है न मकीनों को ख़बर,
उन दिनों की जो गुफाओं में गुजारे हम ने।

हाथ ढलते गए सांचें में तो थकते कैसे?
नक़्स के बाद नए नक़्स निखरे हम ने,
की ये दीवार बुलंद और बुलंद और बुलंद,
बाम-ओ-दर और ज़रा और संवारे हम ने ,
आंधियां तोड़ लिया करतीं थीं शमाओं की लवें,
जड़ दिए इस लिए बिजली के सितारे हम ने,
बन गया क़स्र तो पहरे पे कोई बैठ गया,
सो रहे ख़ाक पे हम शोरिश-ऐ-तामील लिए,
अपनी नस नस में लिए मेहनत-ऐ-पैहम की थकन,
बंद आंखों में उस क़स्र की तस्वीर लिए,
दिन ढलता है इस तरह सिरों पर अब तक,
रात आंखों में खटकती है सियाह तीर लिए।

आज की रात बहोत गर्म हवा चलती है,
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी,
सब उठो,मै भी उठूँ,तुम भी उठो,तुम भी उठो,
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी।

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