दाइम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मै,
खाक ऐसी जिंदगी पे के पत्थर नहीं हूँ मै ।
क्यों गर्दिश-ऐ-मुद्दाम से घबरा न जाए दिल ?
इंसान हूँ,प्याला-ओ-सागर नहीं हूँ मै।
या रब! ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिए?
लोह-ऐ-जहाँ पे हर्फ़-ऐ-मुकद्दर नहीं हूँ मै।
हद चाहिए सज़ा में अकूबत के वास्ते,
आख़िर गुनाहगार हूँ,काफिर नहीं हूँ मै।
किस वास्ते अज़ीज़ नहीं जानते मुझे,
लाल-ओ-ज़म्रद-ओ-ज़ेर-ओ-गौहर नहीं हूँ मै।
रखते हो तुम क़दम मेरी आंखों से क्यों दरेग़,
रुतबे में महरो माह से कमतर नहीं हूँ मै
करते हो मुझको मना क़दमबोस किस लिए?
क्या आसमान के भी बराबर नहीं हूँ मै?
ग़ालिब ! वज़ीफ़ख्वार हूँ ,दूँ शाह को दुआ,
वोह दिन गए के कहते थे " नौकर नहीं हूँ मै"
दाइम -हमेशा,निरंतर।
गर्दिश-ऐ-मुद्दाम-निरंतर बदकिस्मती।
हर्फ़-अक्षर,लिखा हुआ।
अकूबत-दर्द।
काफिर-नास्तिक,न मानने वाला।
ज़म्रद-पन्ना।
ज़ेर-सोना।
गौहर-मोती।
दरेग़-दूर जाना,पल्ला झाड़ना।
क़दमबोस-पैर चूमना।
1 comment:
गालिब साहब की इस अनसुनी गजल को हमारे साथ शेयर करने के लिए आभार।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
Post a Comment