मौत का एक दिन मुईन है, नींद क्यों रात भर नहीं आती।
आगे आती थी हाल-ऐ-दिल पे हंसी,अब किसी बात पर नहीं आती।
जानता हूँ सवाब-ऐ-ताअत ओ ज़हद,पर तबीयत इधर नहीं आती।
है कुछ ऐसी ही बात के चुप हूँ,वरना क्या बात करनी नहीं आती?
क्यों न चीखूं के याद करते हैं, मेरी आवाज़ गर नहीं आती।
मरते हैं आरज़ू में मरने की, मौत आती है पर नहीं आती।
क़ाबा किस मुंह से जाओगे ग़ालिब ! शर्म तुमको मगर नहीं आती।
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