Monday, June 22, 2009

याद- फ़ैज़

दस्त-ऐ-तन्हाई में ऐ जान-ऐ-जहाँ लरज़ाँ हैं ,
तेरी आवाज़ के साए तेरे होठों के सराब,
दस्त-ऐ-तन्हाई में दूरी के ख़स-ओ-खाशाद तले
खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन और गुलाब।

उठ रही है कहीं क़ुरबत से तेरी साँस की आंच,
अपनी खुशबू में सुलगती हुई मद्धम मद्धम,
दूर- उफ़क़ पार चमकती हुई कतरा कतरा,
गो रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम।

इस क़दर प्यार से ऐ जान-ऐ-जहाँ रखा है,

दिल के रुखसार पे इस वक़्त तेरी याद ने हाथ,
यूँ गुमाँ होता है,गर च है अभी सुबह-ऐ-फिराक़,
ढल गया हिज्र का दिल आ भी गयी वस्ल की रात।

2 comments:

Asha Joglekar said...

यूँ गुमाँ होता है,गर च है अभी सुबह-ऐ-फिराक़,
ढल गया हिज्र का दिल आ भी गयी वस्ल की रात।

बहुत सुंदर ।

Udan Tashtari said...

बहुत खूब याद किया, आभार.