Wednesday, July 15, 2009

आज इक हर्फ़ को फिर ढूँढ्ता फिरता है ख़याल - फ़ैज़

आज इक हर्फ़ को फ़िर ढूंढता फिरता है ख़याल,
मध् भरा हर्फ़ कोई , ज़हर भरा हर्फ़ कोई।
दिलनशीं हर्फ़ कोई , क़हर भरा हर्फ़ कोई,
हर्फ़-ए-उल्फत कोई दिलदार नज़र हो जैसे,
जिससे मिलती है नज़र बोसा-ए-लब की सूरत,
इतना रोशन के सर-ए-मौज-ए-ज़रहो जैसे।
सोहबत-ए-यार में आगाज़-ए-तरफ़ की सूरत,
हर्फ़-ए-नफ़रत कोई शमशीर-ए-गज़ब हो जैसे
आज इक हर्फ़ को फ़िर ढूंढता फिरता है ख़याल।
ता अबद शहर-ए-सितम जिससे तबाह हो जाएँ ,
इतना तारीक़के शमशान की शब् हो जैसे,
लब पे लाऊँ तो मेरे होंठ स्याह हो जाएँ।
आज इक हर्फ़ को फ़िर ढूंढता फिरता है ख़याल।


1 comment:

निर्मला कपिला said...

आज इक हर्फ़ को फ़िर ढूंढता फिरता है ख़याल,
मध् भरा हर्फ़ कोई , ज़हर भरा हर्फ़ कोई।
बहुत खूब लाजवाब आभार्