Sunday, August 23, 2009

तीरगी जाल है और भाला है नूर - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

तीरगी जाल है और भाला है नूर,
एक शिकारी है दिन, एक शिकारी है रात ,
जग समन्दर है जिस में किनारे से दूर,
मछलियों की तरह इब्न-ए-आदम की ज़ात,
जग समन्दर है,साहिल पे हैं माही गीर ,
जाल थामे ,कोई भाला लिए,
मेरी बारी कब आएगी,क्या जानिए,
दिन के भाले से मुझको करेंगे शिकार,
रात के जाल में या करेंगे असीर

1 comment:

Reid P said...

First time here at your blog and wanted to say i enjoyed reading this.