Wednesday, December 31, 2008

हाट- अरुण कमल

हाट- अरुण कमल

इक दिन अब्बा ने बुलाया और कहा,

अब तुम जवान हो गए हो और मै बूढा

देसावर जाओ और कमाओ,खाओ।

माँ ने चलते वक्त बतासे दिए - खा कर पानी पीना ।

बाज़ार में बहोत सन्नाटा है ,

सारा संसार कांच के पार

और मै शीशे से नाक सटाए

इक जगह जूते देखे हिरन की खाल के ,

और कुमार गन्धर्व की भरी हुई बोली ,

अचानक मुझे नज़र आयी अमरावती नमक की डली,

जो झलकी फिर गुम हो गयी,

जिधर मंडी थी दाल की।

मेरे पास न पूंजी थी न कूवत-ऐ-खरीद,

मै बाट भी न था के हाट के आता काम ,

न पाप कमाया न पुण्य और न ही रहा

दिन भर घूमता निढाल जिस्म लिए लौटा धाम।

लेकिन वहां जहाँ घर था मेरा, घर नहीं था ,

महल था लोहे का किवाड़ और दरबान,

यहाँ मेरा घर था मेरे माँ बाप,

मेरा घर ?

दरबान हँसे-" तुम किस जनम की बात कर रहे हो ?"

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