हाट- अरुण कमल
इक दिन अब्बा ने बुलाया और कहा,
अब तुम जवान हो गए हो और मै बूढा
देसावर जाओ और कमाओ,खाओ।
माँ ने चलते वक्त बतासे दिए - खा कर पानी पीना ।
बाज़ार में बहोत सन्नाटा है ,
सारा संसार कांच के पार
और मै शीशे से नाक सटाए
इक जगह जूते देखे हिरन की खाल के ,
और कुमार गन्धर्व की भरी हुई बोली ,
अचानक मुझे नज़र आयी अमरावती नमक की डली,
जो झलकी फिर गुम हो गयी,
जिधर मंडी थी दाल की।
मेरे पास न पूंजी थी न कूवत-ऐ-खरीद,
मै बाट भी न था के हाट के आता काम ,
न पाप कमाया न पुण्य और न ही रहा
दिन भर घूमता निढाल जिस्म लिए लौटा धाम।
लेकिन वहां जहाँ घर था मेरा, घर नहीं था ,
महल था लोहे का किवाड़ और दरबान,
यहाँ मेरा घर था मेरे माँ बाप,
मेरा घर ?
दरबान हँसे-" तुम किस जनम की बात कर रहे हो ?"
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