Thursday, January 1, 2009

कम्युनिस्ट ईकाई के टूटने पर

आवारा सजदे

इक यही सोज़-ऐ-निहाँ कल मेरा सरमाया है ,
दोस्तों,मैं किसे ये सोज़-ऐ-निहाँ नज़र करुँ।

कोई क़ातिल सर मक़्तल नज़र आता ही नहीं
किस को दिल नज़र करुँ और किसे जान नज़र करुँ।

तुम भी महबूब मेरे तुम भी हो दिलदार मेरे,
आशना मुझ से मगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं,

ख़त्म है तुम पे मसीहा नफस चारा गरी
महरूम दर्द-ऐ-जिगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं,
अपनी लाश आप उठाना कोई आसान नहीं,
दस्त-ऐ-बाज़ू मेरे नाकारा हुए जाते हैं।
जिनसे हर दौर में चमकी है तुम्हारी दहलीज़,
आज सजदे वही आवारा हुए जाते हैं।

दूर मंजिल थी मगर ऐसी भी कुछ दूर न थी,
ले के फिरती रही रस्ते ही में वहशत मुझ को,
एक ज़ख्म ऐसा न खाया के बहार आ जाती,
दार तक ले के गया शौक़-ऐ-शहादत मुझ को,
राह में डूब गए पाँव तो मालूम हुआ,
जुज़ मेरे और मेरा रहनुमा कोई नहीं
एक के बाद एक खुदा चला आता था,
कह दिया अक़्ल ने तंग आ के खुदा कोई नहीं।

1 comment:

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत सुंदर रचना है।