Tuesday, May 26, 2009

नौह-फैज़ अहमद फ़ैज़

मुझे शिकवा है मेरे भाई के तुम जाते हुए,
ले गए साथ मेरी उम्र-ऐ-गुज़िश्ता की किताब ,
उसमें तो मेरी बहोत कीमती तस्वीरें थीं,
उसमें बचपन था मेरा और मेरा अहद-ऐ-शबाब,
उस के बदले मुझे तुम दे गए जाते जाते,
अपने गम का ये दमकता हुआ खूँ रंग गुलाब,
क्या करून भाई ! ये ऐज़ाज़ में क्यों न कर पहनूं,
मुझ से ले लो मेरी सब चाक कमीज़ों का हिसाब,
आखरी बार है! लो मान लो इक ये भी सवाल,
आज तक तुम से मई लौटा नहीं मायूस जवाब,
आ के ले जाओ तुम अपना ये दमकता हुआ फूल,
मुझको लौटा दो मेरी उम्र-ऐ-गुज़िश्ता की किताब।

1 comment:

Udan Tashtari said...

आभार इसे पढ़वाने का.