कोई दिन गर ज़िन्दगानी और है,
अपने जी में हमने ठानी और है।
आतिश-ए-दोज़ख में ये गर्मी कहाँ?
सोज़-ए-ग़म हाए नेहानीऔर है।
बारहा देखी हैं उनकी रंजिशें
पर कुछ अब के सरगिरानी और है।
दे के ख़त मुंह देखता है नामावर,
कुछ तो पैगाम-ऐ-जुबानी और है।
हो चुकीं ग़ालिब बलाएँ सब तमाम,
एक मार्ग-ऐ-ना गहानी और है।
3 comments:
ek sundar abhiwyakti.......padhawane ke liye shukriya
दे के ख़त मुंह देखता है नामावर,
कुछ तो पैगाम-ऐ-जुबानी और है।
वल्लाह क्या बात है.......
नीरज
बहुत बढिया गज़ल प्रेषित की है।आभार।
Post a Comment