Monday, June 22, 2009

तुम - कैफ़ी आज़मी

शगुफ्तगी का लताफत का शाहकार हो तुम,
फ़क़त बहार नहीं हासिल-ऐ-बहार हो तुम,
जो इक फूल में है कैदवोह गुलिस्तान हो,
जो इक कली में है पिन्हाँ वो लालाज़ार हो तुम।

हलावतों की तमन्ना,मलाहतों की मुराद,
ग़रूर कलियों का कलियों का इन्कसार हो तुम,
जिसे तरंग में फितरत ने गुनगुनाया है,
वो भैरवी हो , वो दीपक हो,वो मल्हार हो तुम ।
तुम्हारे जिस्म में ख्वाबीदा हैं हजारों राग,
निगाह छेड़ती है जिसको वोह सितार हो तुम,
जिसे उठा न सकी जुस्तजू वो मोती हो,
जिसे न गूँथ सकी आरज़ू वो हार हो तुम।
जिसे न बूझ सका इश्क़ वो पहेली हो,
जिसे समझ न सका प्यार वो प्यार हो तुम
खुदा करे किसी दामन में जज़्ब हो न सके
ये मेरे अश्क-ऐ-हसीं जिन से आशकार हो तुम.



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