Monday, July 13, 2009

फैज़

आ गयी फ़स्ल-ऐ-सुकूँ चाक गरीबाँ वालों,
सिल गए होंठ कोई ज़ख्म सिले या न सिले ,
दोस्तों बज़्म सजाओ के बहार आई है,
खिल गए ज़ख्म कोई फूल खिले या न खिले।

2 comments:

Neeraj Rohilla said...

bahut khoob.
bahut khoob.

Udan Tashtari said...

आभार इसे पेश करने का!!